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ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद ऐबटाबाद ने वैश्विक स्टार पर जो ख्याति अर्जित की है उसके बाद मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है की पाकिस्तान को अपनी राजधानी इस्लामाबाद से एबटाबाद स्थानांतरित कर देनी चाहिए| इसके तीन कारण है|
१- एबटाबाद इस्लामाबाद को प्रसिद्धि के स्तर पर पीछे छोड़ चुका है|
२- दुनिया जानती है कि पाकिस्तान एक आतंकी राष्ट्र बन चुका है और एक आतंकी राष्ट्र के लिए भावनात्मक व यथार्थ रूप से आज एबटाबाद से बेहतर राजधानी दूसरी नहीं हो सकती|
३- सर्वविदित है कि पाकिस्तान की वास्तविक सरकार ISI व मिलिट्री है और फिर पाकिस्तान की मिलिट्री अकैडमी व ISI का एक कार्यालय भी एबटाबाद में ही है|
खैर! हमे भारत का जिम्मेदार नागरिक होने के कारण पाकिस्तान के आतंरिक मामले में अधिक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि यदि पाकिस्तान नाराज हो गया तो शांतिवार्ता बहाली के हमारे प्रधानमंत्री के घनघोर प्रयाशों को धक्का लग सकता है! अतः हम पाकिस्तान की व्यक्तिगत समस्याओं पर बात न करके वैश्विक परिद्रश्य की बात करते हैं|
जहां तक मैं सोचता हूँ, ९/११ २००१ को अमेरिका पर किये गए आतंकी हमले के बिषय में आतंकी संगठनों का भी एक धड़ा अवश्य सोचता होगा कि यह जेहादी इतिहास कि सबसे बड़ी भूल रही जिसकी प्रतिक्रिया में आतंकी संगठनों ने अपना बहुत कुछ खो दिया| आज साँप छछूंदर की हालत में फंसा पाकिस्तान तो कम से कम ऐसा अवश्य सोंचता होगा.!
व्यक्तिगत रूप से मै नहीं सोचता की ओसामा समेत अल-कायदा या तालिबान ने ९/११ षड़यंत्र से पहले अमेरिका की ओर से इतने भयावह प्रतिक्रियात्मक परिणाम की कल्पना की होगी बाबजूद इसके की ओसामा अमेरिका की ताकत को अच्छे से समझता था| पाकिस्तान अमेरिका के साथ जो दोहरा खेल खेलता रहा, उसकी यह सोच की वह इस आँखमिचौली में अमेरिका को फंसा लेगा, उसकी आज की हालत के लिए जिम्मेदार उसकी सबसे बड़ी भूल थी|
किन्तु इस घटनाक्रम के बाद भारत के जनमानस में जो प्रश्न कौंध रहा है वह यही है कि क्या भारत को भी अपने हितों के लिए अमेरिका जैसी कार्यवाही करनी चाहिए?
मेरा विचार है कि पहले हमें सोचना चाहिए कि क्या हम ऐसी कार्यवाही करने में आज की स्थिति में सक्षम हैं? यदि आज भारत की वास्तविकताओं का विश्लेषण करते हुए उत्तर तलाशें तो उत्तर नकारात्मक ही होगा|
हमें यह अप्रिय निष्कर्ष के कारण को समझने के लिए अमेरिका व भारत के तंत्र का तुलनात्मक विश्लेषण करना होगा| अमेरिकी तंत्र में जहाँ राजनैतिक, खुफिया व सैन्य तंत्र में अभूतपूर्व सामंजस्य दिखता है वहीँ भारत पहले मोर्चे पर ही विफल नजर अत है| अमेरिका में जहाँ यह सामंजस्य इतिहास से लेकर ओसामा घटना क्रम तक सर्वत्र अभूतपूर्व रहा है, वहीँ भारत का राजनैतिकतंत्र ओसामा प्रकरण पर क्या प्रतिक्रिया दे इसे लेकर ही पूर्णतयः भ्रमित दिख रहा था| एक ही सरकार के दो मंत्रालय अलग-अलग नीतियों पर चलते हुए अलग-अलग प्रतिक्रियाएं देते नजर आये|
पाकिस्तानी जमीन प्रयोग करते होने के बाबजूद भी बराक ओबामा ने पाकिस्तान के उस बयान पर जिसमे उसने कहा था कि अमेरिका या अन्य देश(भारत) भविष्य में एबटाबाद जैसी कार्यवाही करने का साहस करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे, पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए स्पष्ट कह डाला कि आवश्यकता पड़ने पर अमेरिका ऐसी कार्यवाही करने से नहीं चूकेगा, वहीँ भारत सरकार ने पाकिस्तानी धमकी पर मनमोहन सिंह के एकतरफा शांति प्रयाशों को आंच न आने देने के लिए मूक रहना ही श्रेयस्कर समझा|
ऐसे मौके पर जब सभी विशेषज्ञ भारत को पाकिस्तान पर दबाब बनाने कि सलाह दे रहे है, हमारी सरकार पाकिस्तान की तरफ से युद्धविराम का उल्लंघन करते हुए सीमा पर की गयी गोलाबारी व सलमान बशीर द्वारा भारत से २६/११ को बीती बताकर भूल जाने को कह डालने बाद भी मनमोहन सरकार शांति की याचना के लिए निःशब्द बनी बैठी है|
ओबामा जहाँ व्यक्तिगत रूप से अपनी सेना व सैनिकों से मिलकर उनका उत्साहवर्धन करते हैं वहीँ भारत की सरकार वोटबैंक के लिए अलगाववादियों व आतंकवादिओं द्वारा मारे जाने बाले नागरिको व सैनिकों की मौत पर या तो चुप्पी साध लेती है या उसकी जिम्मेदारी सेना पर डालने में भी संकोच नहीं करती| इसी मानसिकता के अंतर्गत सेना के अधिकारों में कटौती की तैयारी सरकार में चल रही है| अमेरिका जहाँ अपने एक नागरिक रेमंड डेविस के लिए पाकिस्तान को रिश्तों पर पुनर्विचार करने की धमकी दे डालता है वहीँ पाकिस्तान के ९३००० सैनिकों को जीवनदान देने वाले वाले भारत के सैकड़ो परिवार पाकिस्तान में दुर्यातना झेल रहे अपने परिवारजनों की या तो आश छोड़ चुके हैं या उनकी रिहाई के लिए पकिस्तान से अपेक्षित दया की उम्मीद पर जीवित हैं|
पाकिस्तान के लश्कर व मुजाहिद्दीन जैसे आतंकियो संगठनों के सामने लहूलुहान होते आरहे भारत को यदि तालिबान अलकायदा जैसे विश्वव्यापी नेटवर्क से अमेरिका जैसी प्रत्यक्ष चुनौती मिल रही होती तो आज जैसी सरकारों के बूते राष्ट्र किस स्थिति में होता, कल्पना कठिन है|
९/११ के बाद अमेरिका में एक भी सफल हमला कर पाने में विफल रहे अलकायदा की विफलता के कारणों को यदि हम निष्पक्षता से समझने की कोशिश करते हैं तो उसमे जो प्रमुख है वह उसका आतंरिक सुरक्षा कवच है| विश्व का एक वर्ग भले ही अमेरिका को मुस्लिम विरोधी कहता हो किन्तु उसकी स्वसुरक्षा का श्रेय अन्ततोगत्त्वा उसकी नीतियों को ही जाता है जिसमे उसने विश्वस्तर पर आतंकवादियों पर कड़े हमले के साथ आतंकवाद की जड़ जेहादी मानसिकता को पहचानते हुए उसे निरुद्ध करने का सार्थक प्रयास किया|
यह कहना पूर्णतः निरर्थक होगा कि आतंकवाद नासमझ, अशिक्षित लोगों की प्रतिक्रिया मात्र है क्योंकि लादेन, जो एक संभ्रात परिवार का शिक्षित इंजिनियर था, से लेकर जेहाद के सभी बड़े संचालक शिक्षित व आधुनिक वातावरण से परिचित हैं| अलकायदा नंबर २ अयमान अल जवाहरी एक सर्जन है, अवलाकी अमेरिका में ही रहा बसा इमाम अर्थात धर्मगुरु है| इसके अतिरिक्त अल-रहमान, गदन, मीजत-मुर्सी, सैफ-अल-आदेल या जमात-उद्द-दावा प्रमुख मो. सईद जैसी लम्बी लिस्ट है और इसमें सभी शिक्षित हैं|
यक्ष प्रश्न यह है कि यदि इस्लाम में आतंकवाद का कोई स्थान नहीं है तो ओसामा, अवलाकी, जवाहरी जैसे लोग जो असंदिग्ध रूप से इस्लाम के प्रकांड विद्वान माने जाते हैं, क्यों इस बात को समझ नहीं पाए? क्यों ओसामा के लाखो मुस्लिम अनुयाइयों में बड़े-बड़े मुस्लिम मुल्ला मौलवी, इमाम शामिल हैं? क्यों ये इस्लामिक विद्वान अफगान तालिबान के शासन को ही वास्तविक इस्लामी शरीयती शासन मानते रहे? अवलाकी जैसे कितने ही मुस्लिम विद्वान शरीयत का पाठ पढ़ाकर विश्व में जेहादियों की फ़ौज कड़ी कर रहे हैं, आखिर कैसे?
अमेरिका ने सर्वप्रथम आतंक की इन मशीनों को अपने यहाँ ध्वस्त किया जिसके कारण दुनिया का मुसलमान अमेरिका को मुस्लिम-विरोधी का तमगा दिए हुए है| वैसे तो ईसाइयों मुसलमानों के बीच घृणा व खूनखराबे का लम्बा इतिहास है, किन्तु जो वर्ग इसराइल द्वारा फिलिस्तीन पर अत्याचार व अमेरिका का इसराइल का को समर्थन के कारण मुसलामानों के मानस में ईसाईयों यहूदियों के प्रति नफरत भरने का तर्क देता है, वही वर्ग इस तथ्य को मुसलमानों समेत दुनिया से छुपाकर रखना चाहता है कि आम ईसाईयों के ह्रदय में मुसलामानों के लिए घृणा भरने के लिए ९/११ जैसी जेहादी कार्यवाही ही जिम्मेदार है|
भारत के सन्दर्भ में बात करें तो पाते हैं की भारत में राजनैतिक तुष्टिकरण ने स्थितियों को हद से अधिक बिगाड़ दिया है| इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता की यदि भारत के भीतर जेहादी मानसिकता के विस्तृत बीज नहीं फैले हैं तो आये दिन होने बाले आतंकवादी हमले संभव नहीं हो सकते| सिमी या इंडियन मुजाहिद्दीन जैसे संगठन अपने नग्ननृत्य के कारण भले ही आधिकारिक रूप से प्रतिबंधित हो किन्तु यह सर्वविदित सत्य है की उनका ब्रांड-नेम ही प्रतिबंधित है, दिग्विजय सिंह जिसे नेता उनके आकाओं व आतंकवादियों से मिलने जाते हैं, मुलायम सिंह सिमी आतंकवादियों पर चल रहे मुक़दमे हटाने की वकालत करते हैं तो वहीँ वाराणसी बम ब्लास्ट के बाद मुख्यमंत्री मायावती वोट-बैंक की चिंता में जांच एजेंसियों को किसी जांच के लिए आजमगढ़ न जाने की हिदायत देती नजर आती हैं| दिग्विजय सिंह बेशर्मी की सारी सीमाओं को लांघते हुए कभी अन्ना हजारे के अनशन स्थल पर भारत माता का चित्र लगे होने पर आपत्ति जताकर मुल्लाओ का प्रेमपात्र होने की चेष्टा करता है तो कभी ओसामा को ओसमाजी कहकर सम्मान जताता है या ओसामा की लाश को समुद्र में फेंके जाने की बात उन्हें यहाँ भारत में कचोटती है| पाशवान ओशामा के हमशक्ल के साथ चुनाव प्रचार करते हैं| कांग्रेस समेत लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों का इतिहास ऐसी ही कारगुजारियों से भरा है|
निश्चित रूप से भारत में यह सब वोटबैंक की खातिर होता है किन्तु गंभीर प्रश्न यह है जिसकी भावनाएं सिमी, हुजी या ओसामा से जुडी हैं?
भारत के जम्मू-कश्मीर में ओसामा की खातिर विशाल सामूहिक नमाज आयोजित होती है, हैदराबाद में कड़ी पुलिस व्यवस्था के बाद भी लोग मौलाना नसीरुद्दीन के नेतृत्व में नमाज के लिए घर से निकलते हैं| लखनऊ में रूढ़-मानसिकताओं से लदी पुरानी पीढ़ी नहीं बल्कि नवयुवक ओसामा के लिए नमाज की प्लानिंग करते हैं| ये इतनी ही जगह नहीं हैं जहाँ ओसामा व जिहाद के अनुयायी रहते हों, यह बिषबेल पूरे भारत में फैली है| मैं उ.प्र. के हरदोई जिले के जिस छोटे से कसबे पाली से सम्बद्ध हूँ वहां आमतौर पर शांति का माहौल दिखता है इसके बाबजूद भी न सिर्फ ओसामा के विरह में नमाज आयोजित होती है बल्कि उसमे मुस्लिम समुदाय से सम्बद्ध नेता, नागरिक व व्यापारी सभी एकसाथ भाग लेते हैं|
प्रश्न यह है कि इस मानसिकता कि जड़ में कौन से कारण हैं तथा इस मानसिकता व तालिबानी मानसिकता में कितना अंतर है? ये लोग पकिस्तान में ओसामा कि मौत पर फूट फूटकर रोने बाले लोगों से क्या अंतर रखते हैं?
चाहे ओसामा की मौत हो या भारत-पाकिस्तान मैच, मीडिया यह दिखाने के लिए की भारत का मुसलमान पूर्णतः देशभक्त है मुसलमान नवयुवकों व गिनेचुने मुल्लाओं के बयान लेकर उन्हें हेडलाइन बनाता है जबकि ऐसी कितनी ही सच्चाइयों को खबर तक नहीं बनने देता! कौन नहीं जनता की भारत में हर उस स्थान पर जहाँ भी मुस्लिम आबादी हिन्दुओं के साथ सम्मिलित है, किसी भी बड़े भारत-पाकिस्तान मैच के समय अघोषित १४४ आज भी दिखाई देती है? आतंकी मानसिकताओं को निश्चित रूप से प्रचार नहीं मिलना चाहिए किन्तु सच को भी अन्धकार में रखना कितना हित्प्रद सिद्ध होगा.?
यदि अलीगढ या हैदराबाद में मैच में पाकिस्तान की हार या ओसामा की मौत पर दंगे नहीं हुए तो क्यों यह एक समाचार बनता है? क्यों कश्मीर के लालचौक पर तिरंगा फहराने से लोगों को भारत की ही पुलिस को रोकना पड़ता है?
निश्चित रूप से भारत का प्रत्येक मुसलमान जेहादी सोच का समर्थन नहीं करता, यह बात पाकिस्तान व सउदी-अरब जैसे सभी देशों पर भी लागू होती है| किन्तु जो चिंतित करने वाला प्रश्न है वह यह है की जो इस मानसिकता के संवाहक हैं वे कौन और क्यों हैं? हम जब तक इस प्रश्न का उत्तर व समाधान दोनों नहीं पा लेते हम न ही भारत के भीतर के हमलों को रोक पायेंगे और न ही बाहरी.! यदि हमें भारत की भूमि को लहूलुहान होने से बचाना है तो हमे अमेरिका जैसी इच्छाशक्ति को जन्म देना होगा| आज सम्पूर्ण राष्ट्र को अमेरिका से अपने हित के लिए यही सीखने की आवश्यकता है|
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