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बाबा रामदेव बनाम अन्ना, इसे एक बहस का केंद्र बनाने की मुहिम चलाने का प्रयास एक वर्ग द्वारा किया जा रहा है| हमारा ब्लॉग शीर्षक ही मानो बहस का विषय न देकर एकतरफा फैसला दे रहा हो कि “रणनीति अन्ना की और दुराग्रह बाबा का.!” यह मुहिम आज एक आवश्यकता है या उस आन्दोलन को आम जनमानस में में विभाजित व कमजोर करने का षड़यंत्र जिसे आज राष्ट्रहित में एकजुट करने की आवश्यकता है.! यद्यपि अन्ना व बाबा में भी वैचरिक मतभेद कई बार पटल पर आये किन्तु हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि अन्ना के आन्दोलन कि अपनी सीमायें हैं जो लोकपाल बिल के इधर उधर घूमता है और लोकपाल या किसी एक क़ानून मात्र से इस महाभ्रष्ट व्यवस्था में बड़े बदलाव की आशा को जानकार अधिक मानते हैं वहीँ बाबा का आन्दोलन कई गंभीर विषयों को समेटने के साथ काले धन की वापसी पर केन्द्रित है जिससे भारत के कायाकल्प को अस्वीकार नहीं किया जा सकता| अतः न अन्ना बाबा के और न अन्ना का आन्दोलन बाबा के उस आन्दोलन का विकल्प हो सकता है जिसे स्व. राजीव दीक्षित जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त के प्रयासों से भारत स्वाभिमान के रूप में खड़ा किया गया है|
रामदेव व अन्ना को परस्पर प्रतिस्पर्धी सिद्ध करने में राजनेताओं के अपने भ्रष्टहित निहित हैं, जबकि वैचारिक संकीर्णताओं की चहरदीवारी में पड़े स्वयं को बुद्धिजीवी समझने बाला एक वर्ग रामदेव व उनके आन्दोलन को आम जनता में इसलिए अपवाह, संशय व आधारविहीन प्रश्नों के घेरे में फंसा देना चाहता है क्योंकि कॉन्वेंट वातावरण द्वारा अपने मस्तिष्कों में बोये गए हिन्दू ईर्ष्या व हिन्दू फोबिया के बीजों से वे स्वयं को मुक्त नहीं करा पाए हैं
अन्ना से रामदेव की तुलना करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब महाराष्ट्र के बाहर आम नागरिक अन्ना के नाम से भी परिचित न था तब रामदेव ने फरबरी २०११ में अपने सुविस्तृत हो चुके भारत स्वाभिमान के मंच पर डा. सुब्रमनियम स्वामी व किरण बेदी जैसे लोगो के साथ अन्नाजी को मंच देकर देश को उनका परिचय कराया था|
उन्ही अन्ना के साथ बाबा रामदेव के मतभेद सामने आये और वही अन्ना रामदेव से दूरी बनाते नजर आये, यह एक राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही है जिसके लिए अन्ना या रामदेव नहीं अन्ना के पीछे के वे तथाकथित बुद्धिजीवी उत्तरदायी हैं जिनके प्रभाव में कभी खुले मंच से गुजरात के विकास व कुशल प्रशासन के लिए मोदी की प्रशंसा कर चुके अन्ना छद्म सेकुलरिज्म के ढांचे में स्वयं को ढलने के लिए न मात्र अपने बयान को बदलने के प्रयास में दिखे वरन मोदी को ही घेरने का प्रयास करने लगे बाबजूद इसके कि अन्नाजी महाराष्ट्र में उत्तरभारतीयों के विरुद्ध राज ठाकरे का समर्थन करते नजर आते हैं|
यहाँ देखिये-http://newshopper.sulekha.com/hazare-backs-raj-thackeray-s-tirade-against-non-marathis_news_1024638.htm
रामदेव की अपेक्षा अन्ना इसी सेकुलर वर्ग की पसंद इसीलिए हैं क्योंकि जहां अन्ना स्वयं को संघ से जोड़े जाने पर यूँ विचलित हो गए जैसे उनका नाम लश्कर-ए-तैयबा से जोड़ दिया गया हो और P.M सोनिया को पत्र भी लिख डाला वहीँ बाबा रामदेव ने प्रश्नकर्ताओं से प्रतिप्रश्न कर दिया कि यदि भ्रष्टाचार पर संघ उनके साथ है तो इसमें बुराई क्या है? अथवा संघ कहीं प्रतिबंधित संगठन तो है नहीं.?
इन स्वयंभू बुद्धिजीवियों को चुनाव जीतने के लिए भारतीयों का खून बहाने बहाने बाले नासिर मदानी व बिहार में ओसामा के डुप्लीकेट को साथ लेकर घूमने बालों से तो आपत्ति नहीं होती किन्तु संघ का भ्रष्टाचार के विरुद्ध सहयोग भी उन्हें देश के लिए संकट नजर आता है.! संघ के नाम को इस तरह उठाने से न सिर्फ तुष्टीकरण के उद्द्येश्यों की पूर्ति होती है वरन साथ ही स्वाभाविक नम्र हिन्दुओं को भ्रमित कर उनके वोट अपने साथ जोड़े रखने में भी मदद मिलती है जो राजनैतिक मकडजाल की गहन जानकारी नहीं रखते|
रामदेव के नकारने के बाद भी यह प्रचारित करने का भरकस प्रयास हुआ कि रामदेव के आन्दोलन के पीछे उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा है जिसके कारण रामदेव अन्ना के मुकाबले जनविश्वास प्राप्त नहीं कर पाएंगे किन्तु रामलीला मैदान में में उमड़े विशाल जनसैलाब ने मीडिया के इस दुष्प्रचार को आधारहीन सिद्ध कर दिया, पूरे देश में अलग-२ स्थान पर जनज्वार को यदि अलग भी कर दिया जाए| कुछ तो भावुकता में रामदेव को योगी होने का वास्ता देकर आन्दोलन से दूर रहने की सलाह देते दिखाई दिए तो कुछ ने कुंठा में उन्हें घमंडी तक कह डाला.! यदि धोखेबाज सरकार के विरुद्ध आक्रोश घमंड है तो यही घमंड सदियों से क्रान्ति का मूलमंत्र रहा है| कुछ को तो बाबा रामदेव में घमंड इसलिए झलकता है क्योंकि अन्ना के समर्थन में ५ हजार लोग जंतर-मंतर पर एकत्रित हुए जबकि बाबा के आन्दोलन में समर्थकों की संख्या ५० हजार पार कर गयी| जनसमर्थन को घमंड के रूप में परिभाषित करने की यह कला ही आज की बुद्धिजीविता है|
योग से प्रथम लाभान्वित शहरी क्षेत्र का ही बड़ा वर्ग है जो रामदेव में अगाध श्रद्धा रखता है, रामलीला मैदान में जुटे दिल्ली के स्थानीय लोगों की भीड़ इसका प्रमाण है किन्तु फिर भी यह प्रस्तुत करने का प्रयास जारी है कि रामदेव का समर्थक मात्र ग्रामीण व अशिक्षित समुदाय ही है मानो भ्रष्टाचार ग्रामीण भारत का मुद्दा ही न हो अथवा ग्रामीणों का समर्थन कोई कूड़ा-करकट हो.! वास्तविकता तो यह है अन्ना को छोड़कर उनकी टीम के अन्य सदस्य अर्थशास्त्र, समाज-शिक्षाशास्त्र व क़ानून के किताबी पंडित भले ही हों किन्तु वे उस विशाल भारत के ह्रदय को नहीं छू सकते जिसका अर्थशास्त्र पढने से नहीं देखने और सुनने से आता है|
रामदेव की विशाल संपत्ति या कारोबार पर उंगली उठाने बालों में या तो दिग्विजय जैसे कांग्रेसी हैं जिनके खुद के कपडे भरी बाजार उतर चुके हैं या रामदेव के स्वदेशी आन्दोलन से चिढ़े हुए वे लोग जिनके विदेशी कंपनियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वार्थ जुड़े हैं, इसके अतिरिक्त यदि कोई निस्वार्थ आपत्तिधारक हैं तो वे हैं विदेशी मानसिकता के ब्रेन-वाश्ड| एक आम भारतीय विदेशी कंपनियों के विशाल जाल को चुनौती देते हुए रामदेव के स्वदेशी कारोबारी प्रयासों से ईर्ष्या या आपत्ति नहीं रखता|
अब बात कर लेते हैं रामदेव पर चिट्ठी व समझौते के आरोपों की! मुझे यह जानना है कि यदि सरकार ने रामदेव को उनकी सभी मांगों को मान लेने का आश्वासन दिया था प्रतिउत्तर में रामदेव ने नियत समय पर आन्दोलन वापस ले लेने का लिखित आश्वासन देकर कौन सा पाप कर दिया.? आन्दोलन का उद्देश्य आखिर मांगो को मनवाना ही तो था.! यह कहना कि फिर रामलीला मैदान में दिखावा या औपचारिकता की क्या आवश्यकता थी एक अपरिपक्व प्रश्न होगा क्योंकि जिस सरकार के आश्वासन पर आज एक अनपढ़ आदमी भी विश्वास नहीं करता उस पर रामदेव कैसे विश्वास कर लेते व आश्वासन को अमलीजामा पहनाने से पहले उस आन्दोलन को कैसे वापस ले लेते जिसके लिए पूरे देश से देशवासी चल चुके थे.?
रामदेव को बेमांगी सलाह देने वालों कि एक जो अंतिम राय है वह यह कि रामदेव को पुलिस आक्रमण के समय भागना नहीं चाहिए था बल्कि एक सच्चे सत्याग्रही की भांति गिरफ्तारी देनी चाहिए थी|
किसी सच्चे क्रांतिकारी का उद्द्येश्य क्रांति कि सफलता होती है न कि अपने आदर्शो कि स्थापना! जैसा कि पुलिस आक्रमण की बर्बरता से दिखा व कई प्रत्यक्षदर्शियों ने स्वयं बताया कि ऐसा लग रहा था कि पुलिस को किसी भी हद तक जाने की छूट दी गई थी, इन स्थितियों में यदि रामदेव ने पुलिस व सरकार की मंशाओं पर विश्वास नहीं किया तो मैं इसे उनकी बुद्धिमत्ता ही मानता हूँ न कि नीच से नीच हथकंडों के लिए कुख्यात राजनेताओं पर विश्वास को बहादुरी! और फिर निर्लज्ज सरकार की भ्रष्ट पुलिस की हथकड़ियाँ कोई परिणय सूत्र या पवित्र प्रेम-बंधन नहीं जिनमे किसी सत्याग्रही को बांध ही जाना चाहिए..!
हममे से सभी जानते हैं कि गिरफ्तारी उन राजनेताओं की घिनौनी नौटंकी है जिनकी गिरफ्तारी से पहले ही उनकी जमानत या रिहाई तय हो जाती है और उनके जेल पहुचने से पहले ही जेल के VIP वार्ड में उनके ऐशो-आराम के सामान सज जाते हैं|
हमें बाबा रामदेव से ऐसी नौटंकी की नहीं बल्कि साम, दान, दंड, भेद किसी भी तरह भ्रष्टाचार के विरुद्ध आरम्भ किये गए अभियान को लक्ष्य तक पहुँचाने कि आशा करनी चाहिए जैसा कि कृष्ण कंस की, शिवाजी ने औरंगजेब की व सुभाष चन्द्र बोष ने भेष बदलकर अंग्रेजों की जेल से भागकर किया था|
तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी अन्ना रामदेव की नापतौल छोड़कर राष्ट्रहित में भ्रष्टाचार के विरुद्ध महायुद्ध में प्रत्येक राष्ट्रचिन्तक के साथ आना चाहिए चाहे वह अन्ना हों या फिर रामदेव और संघ| इसी में राष्ट्र का हित भी है और व्यक्ति का भी अन्यथा अभी रामदेव ने सेना गठन की बात भले ही आक्रोश मात्र में कही हो लेकिन कल को नेताओं के सोते-सोते ही जनाक्रोश का ज्वार इतना बढ़ जायेगा कि मिश्र, लीबिया, सीरिया के बाद भारत का नाम भी उसी सूची में जुड़ चूका होगा|
|| समय चूकि फिर का पछिताने ||
BY- वासुदेव त्रिपाठी
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