- 68 Posts
- 1316 Comments
मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है, इस बात को मीडिया दम भर के कहता है और इस सत्य को नकारा भी नहीं जा सकता| देश की स्वतंत्रता के आन्दोलन में मीडिया ने अप्रतिम योगदान दिया है| 1826 में कलकत्ता से प्रकाशित हुए “उद्दंड मार्तंड” ने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध जो बिगुल बजाया उसने देश में एक नयी क्रांति को जन्म दिया था| क्रांति की इस प्रज्वलित मशाल को भारतेंदु हरिश्चंद्र की “कविवचन सुधा”, ने पुनः प्रचंड किया और पं. मदनमोहन मालवीय, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, गुलाब चन्द, अमृतलाल चक्रवर्ती, बाबूराव विष्णु पराड़कर, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे राष्ट्रभक्तों की लेखनी ने इसे अंग्रेजी शासन के अत्याचारों के झंझावातों के सामने जीवित रखकर राष्ट्रीय चेतना को क्रांति का स्वरुप दिया| स्वतंत्रता के बाद भी पत्रकारों ने निष्पक्ष रूप से देश की अमूल्य सेवा की| किन्तु व्यवसायिकता के बढ़ते चलन ने विगत कुछ बर्षों में पत्रकारिता की निष्पक्षता को लकवा सा मार दिया है, और अब वह पहले सा देशप्रेम, निष्पक्षता, और सच्चाई मीडिया में नजर नहीं आती| यही कारण है कि अब मीडिया भी भ्रष्टाचार का उतना ही बड़ा अड्डा बन गया है जितना कि अनन्य कोई क्षेत्र| मीडिया पर न तो लोगों का पहले जैसा विश्वास ही रहा है और न ही भरोसा.!
चाहे सलमान की गाली हो या शाहरुख़ को लगी ठण्ड, अथवा विपाशा की नयी तस्वीर हो या ऐश्वर्या की प्रेगनेंसी.., सब कुछ नेशनल खबर बनता है| कौन नहीं जानता राहुल की ग्राम यात्राएं चुनावी फायदे के के लिए की जाने बाली रंगमंचीय लीलाएं मात्र हैं किन्तु फिर भी हमारे अखबारों की वह पहली मुख्य खबर बनती है, लेकिन नक्सलियों की गोलियों से शहीद होने वाले जवानो के बलिदान को अन्दर के पन्नो के कोनों में ऐड के बाद बमुश्किल जगह मिलती है……… कई बार तो सीमा पर हुई गोलीबारी की खबर को भी विज्ञापन और चटखारेदार न्यूज के चलते आप कहीं अन्दर के किसी पन्ने में पड़ा पते होंगे… कई समाचारों को आवश्यकता से कहीं अधिक तूल दी जाती है तो कुछ ख़बरें गुमनामी के अंधेरों में खो जाती हैं| सेकुलरिज्म के नाम पर समुदाय विशेष की मौका पाते ही आलोचना और संदर्भित खबरों की मनमानी व्याख्या फैशन हो चली है| यह सब अब आम हो चुका है किन्तु प्रश्न उठता है कि आज पत्रकारिता का उद्देश्य आखिर कितना बदल चुका है.?
लोकतंत्र इस स्तम्भ पर कैसे टिक पायेगा.?
पद्मनाभ मंदिर संपत्ति के प्रकाश में आने के बाद मीडिया अपनी बेतुकी व्याख्याओं से पुनः अपने दुराग्रह को स्पष्ट करता नजर आया, इस सन्दर्भ में मीडिया की लाफ्बाजिओं की एक बानगी देखिये…….
एक इतिहासकार के अनुसार ये धन ‘कर, तोहफ़ो,रिश्वत और जीते गए राज्यों से लूटे गए पैसों’ का हिस्सा है. 1931 में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार उस समय चीज़ो की सूची बनाने के लिए कम से कम एक तहख़ाने को खोला गया था.
खोलने की पूरी प्रक्रिया भी काफ़ी नाटकीय थी. ज़ंक खाए तालों को तोड़ने में ढाई घंटे लगे थे.
यह शब्द हैं बीबीसी के.! 1931 में छपी रिपोर्ट का हवाला देकर यह बताने कि ताला खोला गया था और उसमे ढाई घंटे लगे थे, के बींच में किस शातिराना तरीके से एक हवाई इतिहासकार के वचन विना कोई आधार बताये जोड़ दिए गए| 1931 में क्या छपा इसका किसी इतिहासकार(?) की सोंच से क्या सम्बन्ध..? ये इतिहासकार महोदय कौन हैं और इनके निष्कर्ष का कोई सुदृढ़ आधार भी है? किन्तु यह एक मनोवैज्ञानिक तरीके से भ्रमित करने वाली मीडिया शैली है जो षड़यंत्र के तहत हिन्दुओं के लिए ही प्रयुक्त होती है| क्या आप इन शब्दजालों को को समझ पाते हैं.?
यहाँ कोई कमेन्ट करने, विचार देने से पहले आप विषय के नंगे ऑपरेशन को देखने और समझने के लिए आप यहाँ क्लिक करें और अपनी अमूल्य राय दें| ” हिन्दू निशाने पर: एक नंगा सच
Read Comments