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हिन्दी का लैमार्कवादी विकास: राष्ट्रीय आत्मघात का एक अध्याय(1)

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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(विषय के विस्तार व आवश्यकता के अनुसार लेख आपसे पूर्ण अध्ययन की अपेक्षा रखता है)

hअपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने की कहावत ओ आपने अवश्य सुनी होगी किन्तु आज भारतीयों की मानसिक दशा-दिशा देखकर मुझे गर्दन पर कुल्हाड़ी मारने जैसी किसी कहावत की आवश्यकता प्रतीत होती है। भारतियों से अधिक अपनी ही जड़ें खोदने का प्रयास किसी भी सभ्यता ने शायद नहीं किया होगा किन्तु आश्चर्य यही है यह सनातन संस्कृति अभी तक जीवित बनी हुई है। किन्तु आज संकट बहुआयामी और अधिक गंभीर है क्योंकि इतिहास की भांति आज भारतीय संस्कृति के शरीर पर ही प्रहार नहीं हो रहे वरन संक्रमण हमारे अपने ही हृदय और मस्तिष्कों में विकसित हो चुका है।

राष्ट्र किन्हीं भौगोलिक सीमाओं से बंधा भूखंड मात्र नहीं होता वरन समान सांस्कृतिक समरसता व एकता का एक सतत विकासशील परिक्षेत्र होता है। पुरातन काल से मध्यकाल का इतिहास और पुनः आधुनिक इतिहास इसी तथ्य की उद्घोषणा करता है। मध्य एशिया के इतिहास में चाहे ईरान जैसे राष्ट्रों का स्वरूप परिवर्तन देखें या गांधार का कांधार (अफ़गानिस्तान) मे परिवर्तन, अथवा रूस जैसी महाशक्ति का 1989 में 18 टुकड़ों मे विखंडन, सांस्कृतिक परिवर्तन ही एकमात्र मुख्य कारण मिलता है। आज पाकिस्तान और बांग्लादेश का अस्तित्व इसी सत्य का विशालकाय उदाहरण है। यह भी एक सामान्य सत्य है कि व्यक्ति पहले असांस्कृतिक बनता है बाद में राष्ट्रद्रोही। कई पीढ़ियों से अप्रवासी भारतीयों में भी भारतबर्ष के प्रति अभूतपूर्व प्रेम समर्पण व सांस्कृतिक निष्ठा पूर्ण जीवित है वहीं अपने ही देश में भारत को सँपेरों का देश कहकर उपहास उड़ाने वाले अंग्रेजों के मानसपुत्र अथवा तिरंगा जलाने वाले लाखों सिमी हुजी के सदस्य भी आसानी से मिल जाएंगे। यह मूल संस्कृति से विदेशी संस्कृति की ओर परावर्तन का परिणाम है।

मेरा मानना है कि यदि हम किसी राष्ट्र की संस्कृति को शरीर के रूप में देखें तो भाषा उसकी वाणी है और भारतीय संस्कृति के पतन में भाषायी संकरण का मुख्य योगदान रहा है जिसके लिए हमारी अदूरदर्शिता व उदासीनता ये दो पाप ही उत्तरदायी रहे हैं। भाषायी विकास के नाम पर हिन्दी के संकरण की वकालत करने वालों का मस्तिष्क आज इन्हीं दो पापों से से संक्रमित है। हिन्दी में अरबी फारसी के शब्दों की घुसपैठ से भाईचारे की कल्पना करना कुछ वैसा ही है जैसे बांग्लादेशियों की घुसपैठ से भाईचारे की कल्पना करना! हिन्दी में आज अरबी फारसी के हजारों शब्द हिन्दी के शब्दों को गौड़ अथवा विलुप्तप्राय कर चुके हैं किन्तु प्रश्न यह है कि अरबी ने कितने हिन्दी के शब्दों को आत्मसात किया.? मेलमिलाप एकदिशीय नहीं अतिक्रमण एकदिशीय होता है। हाँ हिन्दी और अरबी फारसी से उर्दू के रूप में एक नयी भाषा का जन्म अवश्य हुआ किन्तु वह भी संप्रदाय विशेष की धार्मिक पहचान बन कर रह गयी क्योंकि उसकी जड़ें अरबी के ही निकट थीं। गांधीजी भी भाईचारे की इसी काल्पनिकता से नहीं बच पाये थे और विश्व की प्राचीनतम संस्कृति के संस्कृत आधारित भाषायी स्वरूप को बदल डालने का एक पूर्ण प्रयास उन्होने कर डाला जिसमें हिन्दी के स्थान पर हिन्दी उर्दू संकरित नयी भाषा “हिंदुस्तानी” को राष्ट्रीय भाषा से लेकर शैक्षणिक भाषा बनाने का संकल्प था। यद्यपि गांधीजी का यह प्रयास राजर्षि टण्डन जैसे प्रखर चिंतकों की सक्रियता के कारण सफल नहीं हो सका किन्तु निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार अयोद्ध्या के बादशाह दशरथ थे जिनकी तीन बेगमें और चार शहजादे थे। बड़े शहजादे का नाम राम था…। गांधी नेहरू भले ही न समझे हों किन्तु यह दृढ़सत्य है कि दशरथ राजा से बादशाह नहीं हो सकते और राम दशरथनन्दन राजकुमार के स्थान पर शहजादे नहीं हो सकते। प्रत्येक भाषा का विकास उसकी सभ्यता की संस्कृति के अनुसार होता है और उसकी प्रतिध्वनि उस सभ्यता के इतिहास को प्रतिध्वनित करती है। राजा शब्द हमारे मस्तिष्क मे सर्वप्रथम राम, कृष्ण, विक्रमादित्य, महारणा प्रताप और शिवाजी, व उनके आदर्शों के ही चित्र उकेरता है वहीं बादशाह व सुल्तान शब्द से हमें तुगलकों के अत्याचार, बाबर की बर्बरता, अकबर के मीना बाजार, और औरंगजेब की ही याद आते हैं। “बादशाह” शब्द की जड़ों में भी नीति आदर्श व त्याग का वह संगम नहीं मिल सकता जिसे “राजा” शब्द परिभाषित करता है। इसी प्रकार शहजादा से सलीम और राजकुमार से राम और सिद्धार्थ की ही याद पहले आती है। हिन्दी के मौलिक शब्द संस्कृत के तद्भव अथवा तत्सम शब्द हैं, प्रत्येक शब्द की रचना के पीछे विशिष्ट धातु होती है जिनका आधार संभवतः ध्वनि विज्ञान ही है। अतः प्रत्येक शब्द अपनी ऊर्जा के अनुसार विशेष मानसिक प्रतिक्रिया (भाव या अनुभूति) उत्पन्न करती है जिसे अन्य भाषा के शब्दों से स्थानापन्न करना सहज नहीं है।

संकरणीकरण के पक्ष में एक और प्रबल तर्क जो दिया जाता है कि हिन्दी को उसके शुद्ध क्लिष्ट स्वरूप से निकालकर उसे सरल बनाने के लिए उर्दू अरबी और बोलचाल की अंग्रेजी के शब्दों को स्वीकारने की आवश्यकता है क्योंकि इसी से आधुनिकता के अनुसार हिन्दी का विकास संभव है किन्तु यह कथन तार्किक आधार पर मानसिक खोखलेपन अथवा सांस्कृतिक षड्यंत्र के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। नवजात शिशु के लिए कोई भाषा सरल या कठिन नहीं होती, मानव मस्तिष्क उन्हीं शब्दों को मातृभाषा के रूप में ग्रहण करता है जो उसे बोलचाल में मिलते हैं। आज यदि मैं आपसे “अनार्जव”, “भृतृक”, “अजस्र” या “प्राधीत” जैसे कुछ शब्द कहूँ और आपको ये शब्द कठिन/क्लिष्ट लगें तो सीधा कारण यही है कि आपको इन शब्दों के स्थान पर “बेईमान” “नौकर”-“servant”, “continuous”, “काबिल”-“well-educated” जैसे शब्द ही बचपन से सुनने पढ़ने को मिले हैं परंतु कुछ दशक पहले स्थिति भिन्न थी और आज भी अधिकांश भारतीयों के लिए अंग्रेजी के सामान्य समझे जाने वाले शब्द भी बड़बड़ाहट से अधिक कुछ नहीं हैं। शब्दों के आयात से भाषा के विकास का तर्क वहीं तक सही है जहां तक जहां तक हम ऐसे नवीन तकनीकी वैज्ञानिक शब्दों का समावेश करें जोकि नए आविष्कार होने के कारण हमारे शब्दकोश में नहीं हैं, किन्तु प्रेम, शांति, उन्नति, विद्वता जैसे मूल शब्दों को गर्त में डालकर इश्क, अमन, तरक्की, काबिलियत अथवा love, peace, development, व wisdom जैसे शब्दों को हिन्दी में घुसेडकर हम किस भाषा की उन्नति कर रहे हैं? यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि संस्कृत की पुत्री होने के कारण हिन्दी (अपनी बहन भाषाओं के साथ) मौलिक शब्द संग्रह के आधार पर विश्व की किसी भी भाषा की तुलना में महानतम स्थान रखती है। हिन्दी के शब्दकोश में न केवल मानव मन के किसी भी मनोभाव को सटीक शब्द देने की क्षमता है वरन ऐसी अनुभूतियों के लिए भी शब्द हैं जो साधारण मस्तिष्क की अनुभव शक्ति से परे हैं। निश्चित रूप से भारतीय दर्शन की अभिव्यक्ति के लिए शब्द भी भारतीय भाषाएँ ही दे सकती हैं। अंग्रेजी तो “सृष्टि” शब्द के लिए creation शब्द ही दे सकती है क्योंकि उसे सृष्टि और रचना के मध्य अंतर नहीं आता इसी तरह “प्रेम” जैसे पवित्र शब्द के समानांतर अंग्रेजी के पास love शब्द ही है और love making का अर्थ ऑक्सफोर्ड या कैंब्रिज दोनों ही शब्दकोश में आप देख सकते है।

हिन्दी के विकास(?) की यह लैमार्कवादी प्रक्रिया इसी भांति सदियों से चलती आ रही है कि पहले हमें विदेशी भाषाओं को अपनी विवशताओं या अक्षमताओं के कारण स्वीकार करना पड़ता है और फिर हम उसे विद्वता प्रदर्शन के झूठे दंभ के कारण विद्वता की कसौटी बना लेते हैं और फिर सामान्य बोलचाल में विदेशी शब्दों की बाढ़ मातृभाषा के शब्दों को प्रयोगवाह्य कर देती है जिससे अपने ही शब्द क्लिष्ट और निरर्थक प्रतीत होने लगते हैं। आज हम जानते ही नहीं हैं कि हमारी बोलचाल में कितने विदेशी शब्द समावेशित हैं और उनका मातृभाषा में क्या अर्थ होता है! आज हिन्दी के जिस सरल स्वरूप की हम बात करते हैं दुर्भाग्य से वह भी कान्वेंट स्कूल्स के बच्चों के लिए कोई परग्रहीय भाषा बनती जा रही है। मैंने इस राष्ट्रीय दुर्भाग्य को निकटता से देखा है। यदि आपकी भाषा में अंग्रेजी शब्दों की प्रचुरता नहीं है तो आप मेरे अधिकांश सहपाठियों को अपनी बात सरलता से समझा नहीं सकते। हिन्दी शब्दों को स्थानापन्न करती हुई अंग्रेजी शब्दों की इस बढ़ती अनिवार्यता को हिन्दी का विकास कहा जाए या विनाश?

शब्दों के आयात के समर्थन में प्रायः अंग्रेजी का उदाहरण दिया जाता है कि अंग्रेजी ने प्रत्येक भाषा से शब्दों को लिया और आज उसका शब्दकोश 10,00,000 तक पहुँच गया है किन्तु कम लोग समझ पाते हैं कि अंग्रेजी का विकास साम्राज्यवाद और पूंजीवाद पर आधारित है। अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य और व्यापार की जड़ें जमाने के लिए विभिन्न देशों में विभिन्न भाषाओं के शब्दों को लिया किन्तु उनका प्रयोग या तो उस देश में ही सीमित रहा अथवा शब्द के स्वरूप को ही अंग्रेजी कर दिया गया। जंगल, लूट, ठग जैसे अनेकों शब्द इसके उदाहरण हैं। कितने लोग जानते हैं कि अंग्रेजी का alcohol शब्द अरबी की, Boss Cookie और Lottery जर्मन की, Ambulance Diplomat फ्रेंच की, Tank गुजराती की, Mango Curry और Anaconda तमिल की और Sugar Candy Orange व Shampoo जैसे प्रचलित शब्द हिन्दी की देन हैं?  यह अतिक्रमण यहीं तक नहीं रुका वरन अब तो हिन्दी की संज्ञायें व हमारे आराध्य देवता भी अपनी पहचान बचाने के लिए संघर्षरत हैं। अंग्रेजी का विकासवाद देव को देवा, राम को रामा, कृष्ण को कृश्ना, गणेश को गनेशा, आदित्य को आदित्या, नारायण को नारायना और भगवान शिव को शिवा (पार्वती) बना डालने पर तुला है। व्याकरणिक निर्धनता अंग्रेजी की है कि वह “स्वर” “अर्धस्वर” “दीर्घस्वर” अथवा शब्द के अंत में व्यंजक” व “अर्धव्यंजक” को नियमबद्ध ढंग से लिखना नहीं जानती किन्तु योग जैसी भारतीय सम्पदा को योगा का चोला हमने पहना डाला.! इसी प्रकार प्रेम, जय, विजय जैसे शब्दों का भी लिङ्ग परिवर्तन कर हमने उन्हें प्रेमा, जया, विजया बना डाला और कई भारतीय भाई-बहनों के लिए तो बड़ी भरी दुविधा व समस्या उत्पन्न कर दी। यद्यपि मैं अपने नाम को Vasudev ही लिखता हूँ किन्तु कई बार मेरे गुरुजन या भद्रजन इसे पूर्णता प्रदान करने के लिए Vasudeva कर के लिख देते हैं और फिर स्वयं भ्रमित हो जाते हैं कि इसे वासुदेव, वसुदेव, वासुदेवा, वसुदेवा में से क्या पढ़ें…?? जब मैं बोलचाल के शब्दों पर ध्यान देता हूँ तो मुझे “ण” “ड़” “ढ़” व “ञ” जैसी ध्वनियाँ लैमार्कवादी विकास के फेर में लुप्त ही होती दिखाई देती हैं..।
लेख के अगले महत्वपूर्ण भाग के लिए क्लिक करें- हिन्दी का लैमार्कवादी विकास: राष्ट्रीय आत्मघात का एक अध्याय(2)

द्वारा – वासुदेव त्रिपाठी

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