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हिन्दी का लैमार्कवादी विकास: राष्ट्रीय आत्मघात का एक अध्याय(2)

RASHTRA BHAW
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अंग्रेजी की श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयासों में कई भयानक असत्य हम भारतीयों के मस्तिष्क में घुसेड़े गए जैसे कि- अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है, अंग्रेजी आधुनिक युग की भाषा है, अंग्रेजी विकसित लोगों की भाषा है, अंग्रेजी सभ्य शिष्ट लोगों की भाषा है, अंग्रेजी विज्ञान तकनीक व कम्प्यूटर युग की आवश्यकता है….. आदि-आदि। पहले हम अंग्रेजी के वैश्विक भाषा होने के दावे का खोखलापन देखते हैं।  विश्व की प्रमुख भाषाओं की गणना उनके बोलने वालों की संख्या के आधार पर की जाती है। इसमें चाइनीज़ 1.03 अरब से अधिक भाषियों के साथ प्रथम स्थान पर है इसके बाद दूसरा स्थान हमारी हिन्दी का है जिसके 47.5 करोड़ से अधिक बोलने वाले हैं। हिन्दी के साथ ही हमारी अन्य भाषाएँ (पंजाबी 10.3 करोड़, मराठी 7.2 करोड़, गुजराती 4.6 करोड़, तेलगू 7.4 करोड़, तमिल 7.8 करोड़) भी हैं जिनके बोलने बालों को हिन्दी में सम्मिलित नहीं किया गया है। तीसरे स्थान पर स्पेनिश(40 करोड़ से अधिक) आती है और तब जाकर कहीं चौथे स्थान पर तथाकथित वैश्विक भाषा अंग्रेजी का नाम आता है जिसके लगभग 32.8 करोड़ बोलने वाले हैं। वैसे मेरे बचपन के दिनों मे कक्षा में प्रथम द्वतीय व तृतीय स्थान प्राप्त करने वाले बच्चों का नाम ही पुरस्कार के लिये पुकारा जाता था.!! अंग्रेजी के बाद पांचवें स्थान पर हमारी ही भाषा बांग्ला विद्यमान है। अंग्रेजी को वैश्विक भाषा समझने वालों को जानकार कष्ट होगा कि अंग्रेजी का अपने तीन केंद्र देशों (अमेरिका, आस्ट्रेलिया व इंग्लैंड) में भी शत-प्रतिशत साम्राज्य नहीं है, कुछ बर्ष पूर्व के आंकड़ों के अनुसार आस्ट्रेलिया में मात्र 79%, अमेरिका में 82% व जन्मभूमि इंग्लैंड में अंग्रेजी के लगभग 97% ही मूल(native) भाषी हैं। लैटिन अमेरिकी देशों में तो अंग्रेजी सही से अल्पसंख्यक भाषा भी कहने योग्य नहीं है। वैश्विक आधार का दावा करने वाली अंग्रेजी संयुक्त राष्ट्र में छः आधिकारिक भाषाओं(स्पेनिश, फ्रेंच, रशियन, चाइनीज़, अंग्रेजी व अरबी) के मध्य सामान्य भाषा मात्र है जिसका सम्मान फ्रेंच के बाद आता है।

अंग्रेजीके वैश्विक होने के भ्रम का एक आधार अवश्य है, इसका विश्व के सर्वाधिक देशों मे फैला होना। किन्तु ऐसा अंग्रेजी की विशिष्टता अथवा बहुउपयोगिता के कारण नहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण है। भारत में अंग्रेजी भाषियों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 12% होने का दावा भी किया जाता है किन्तु वस्तुतः इतने लोग अंग्रेजी की पढ़ाई करते हैं न कि उसे सीख पाते हैं। शिक्षा के आंकड़ों के अनुमान के आधार पर अभी भारत में अंग्रेजी बोल पाने वाले 3% से अधिक नहीं हैं, किन्तु दुर्भाग्य से ये 3% ही शिक्षित होने का चोला ओढ़े 1अरब भारतीयों पर अपने मानक थोप रहे हैं। अंग्रेजी को विकास का आधार तो कदापि नहीं कहा जा सकता क्योंकि अमेरिका इंग्लैंड व आस्ट्रेलिया जैसे कुछ देशों को छोडकर अधिकांश देश जहां अंग्रेजी अस्तित्व में है गरीब राष्ट्रमंडल देश ही हैं। इसके विपरीत विश्व की अधिकांश महाशक्तियाँ रूस, फ्रांस, स्पेन, जापान, जर्मनी आदि शिक्षण व्यवस्था से लेकर अपनी राजकीय कार्यप्रणाली तक अपनी मातृभाषा का ही प्रयोग करते हैं। चीन जैसा अअंग्रेजी भाषी देश ही विश्व की सर्वाधिक तीव्र गति से उभरती अर्थव्यवस्था हैं वहीं अंग्रेजी पर निर्भर अमेरिका जैसा देश लाखों कुटिल प्रयासों के बाद भी आज अपनी अर्थव्यवस्था बचाने के लिए जूझ रहे हैं। ऐतिहासिक तथ्य साक्षी हैं कि अंग्रेजी कि घुसपैठ ही इंग्लैंड जैसे देश के उपनिवेशवाद के विस्तार की रीढ़ थी और आज भी अमेरिका इंग्लैंड की गरीब देशों के शोषण की नीतियाँ अंग्रेजी की ही नासिका नली से पोषित हो रही हैं। किन्तु फिर भी ये देश, जिसमे हम भी सम्मिलित हैं अंग्रेजी की भाषायी दासता से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहे.! वस्तुतः भाषायी दासता और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मकड़जाल में गहरा और भयानक संबंध है।

अंग्रेजी की शालीनता और शिष्टता से आप अवश्य परिचित ही होंगे यदि आपने इसे पढ़ा होगा। इस विषय पर अधिक प्रकाश डालना लेख के अश्लीलीकरण जैसा होगा। व्याकरणिक कसौटी पर हिन्दी के सामने अंग्रेजी एक ऐसी जंगली भाषा से अधिक कुछ नहीं जिसमे नियमों से अधिक अपवादों का राज्य है। यहाँ put पुट है किन्तु but बट है, root रूट है cool कूल है किन्तु blood ब्लड…! यहाँ पग-पग पर आप खुदा के हुक्मों जैसी ऐसी ही अटपटी बातों को नियम मानने से मना नहीं कर सकते भले आपको अंदर ही अंदर लगता रहे कि सब गोलमाल है भई सब गोलमाल है..! इस सब के बाद भी आज हमारे देश में अंग्रेजी जिस प्रकार शिक्षित होने का मानक बनती जा रही है और अंग्रेजी न जानने वालों को अनपढ़ गंवार अथवा रूढ़िवादी समझने की जो मानसिकता विकसित हो रही है वह नितांत घातक और राष्ट्रीय शर्म का विषय है। प्रश्न यह है कि अंग्रेजी के इस निर्बाध प्रसार से हम कितना कुछ पा रहे हैं और कितना कुछ खो रहे हैं? चीन रूस जापान का उदाहरण देते हुए मैं पुनः स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि अंग्रेजी का विज्ञान तकनीकी के विकास से कोई संबंध नहीं है। अब अंग्रेज भाषा सीखने के प्रयास में हम राष्ट्रीय स्तर पर जो खो रहे हैं उसे स्पष्ट करन चाहूँगा। आज 4-5 बर्ष का बच्चा जब से विद्यालय का मुंह देखता है तब से कम से कम माध्यमिक (12th) तक (यदि आगे अंग्रेजी की प्रेतछाया की उपेक्षा भी कर दें) उसका अंग्रेजी से पीछा नहीं छूटता। यदि एक छात्र एक दिन में औसत 2घंटे का समय (स्कूल, ट्यूशन, व स्वाद्धयाय सहित) भी अंग्रेजी की सेवा में व्यय करता है तो वह 12वीं पास करते करते अपने जीवन का अविराम 1बर्ष से अधिक समय अंग्रेजी सीखने के फेर में नष्ट कर देता है। इसके बाद भी अधिकांश छात्र अंग्रेजी में परिपक्व नहीं हो पाते। अकेले CBSC में ही 2010-11 के सत्र में 7,70,043 विद्द्यार्थी 12वीं की परीक्षा में सम्मिलित हुए थे अर्थात इन छात्रों के 12वीं उत्तीर्ण करते करते देश के लगभग 90-100 बर्ष अंग्रेजी को समर्पित हो गए। देश में ऐसे ही कुल 35 बोर्ड हैं जहाँ लाखों छात्र-छात्राएं प्रतिबर्ष परीक्षा में सम्मिलित होते हैं। क्या हमने कभी इस ऊर्जा के अपव्यय का अनुमान लगाया है.? क्या हमने कभी सोंचा है कि क्यों हमें प्रतिबर्ष निकलने वाले इतने बड़े युवा-दल से पर्याप्त संख्या में उच्चस्तरीय शिक्षाशास्त्री या वैज्ञानिक नहीं मिल पा रहे? अंग्रेजी के लिए व्यय की जाने वाली ऊर्जा शक्ति को यदि सीधे शिक्षा के उद्येश्यों के लिए प्रयोग किया जाये तो हमारी प्रतिभाएं कहाँ पहुँच सकती हैं? विश्व के सर्वाधिक महान व्यक्तित्व व वैज्ञानिक अपनी मातृभाषा से ही शिक्षित होकर निकले हैं। हमारे देश में श्री कलाम इसके एक महान उदाहरण हैं।

हिंदुस्थान के कान्वेंट स्कूल्स में विद्द्यार्थियों का हिन्दी बोलना पूर्णतः प्रतिबंधित होता है और अंग्रेजी ही मातृभाषा की भांति प्रयोग की जाती है किन्तु फिर भी कितने फिर भी विद्द्यार्थी भाषा के रूप में अंग्रेजी में निष्णात हो पाते हैं इसे आंकड़ों में बताने की आवश्यकता नहीं है। अंग्रेजी के विद्वान वे भले ही न बन पाते हों किन्तु राम के स्थान पर टॉम उनके जीवन में अवश्य प्रवेश कर जाते हैं। पंचतंत्र की कहानियों के स्थान पर डिक हैरी व कालिदास के स्थान पर शेक्सपियर का प्रभुत्व ही इस राष्ट्र के सांस्कृतिक द्वंद का कारण है। मैं किसी विदेशी विद्वान को पढ़ने समझने को मस्तिष्क और ज्ञान के विस्तार के लिए आवश्यक मानता हूँ किन्तु जब उनसे कालिदास और तुलसीदास को स्थानापन्न किया जाए तो वह ज्ञान का विस्तार नहीं मानसिकता व दर्शन का अतिक्रमण हो जाता है। मैं पूर्व में ही कह चुका हूँ कि भाषा किसी संस्कृति की अभिव्यक्ति व विचार होती है और विचार ही मनुष्य को देवता मनुष्य अथवा राक्षस बनाते हैं। दुर्भाग्य से आज हम त्यागवादी विचारों के स्थान पर भोगवादी और सेवावादी विचारों के स्थान पर शोषणवादी विचारों को जाने अनजाने अपनाते जा रहे हैं अथवा अपनी संतानों को इस ओर धकेल रहे हैं। आज बच्चों से माता-पिता का नाम पूछने पर “श्री” शब्द के सम्मान से सुसज्जित नाम जैसे कि श्री रामकृष्ण शर्मा अथवा प्रेमकुमार अग्रवाल के स्थान पर Mr. R.K Sharma और Mr. P.K Agravaal ही सुनने को मिलता है। पिता से लेकर नौकर तक सब मिस्टर बन चुके हैं अर्थात अंग्रेजी विकास युग से पहले हमारे पूर्वज एक ही लाठी से सारी भैंसें भी नहीं हाँकते थे लेकिन हमारी नयी पीढ़ी एक ही लाठी से भैंस और माँ-बाप सभी को हाँकती है। सच में अंग्रेजी ने समानता का अत्यधिक प्रचार किया है। बच्चे को अच्छे कान्वेंट स्कूल में प्रवेश मिल सके इसके लिए माँ बाप उसे जन्म से अंग्रेजी सिखाने लगते हैं। अब बच्चा अपने बाबा-दादी से प्रथम परिचय बाबा-दादी जानकार नहीं grandfather-grandmother समझकर ही करता है, आम केला भी मुंह मे mango banana बनकर ही जाते हैं। पहले गाय सामने होती थी तो बताया जाता था कि गौमाता हैं किन्तु आज This is cow से अधिक कुछ भी नहीं..!! पहले पूंछते थे बेटा कान कहाँ , नाक कहाँ तो बच्चा कान नाक पर उंगली रखता था, अब यदि आप नाक पूछेंगे तो बेचारे के लिए बड़ा असमंजस होगा क्योंकि उसके चेहरे पर तो नाक के स्थान पर nose आ चुकी है… और अब जब चेहरे पर नाक ही नहीं रही तो हमारी नयी पीढ़ी में नाक ऊंची करने की चिंता या नाक कटने का भय भी नहीं रहा जैसा कि स्पष्ट दिखाई देता है।

प्रश्न यह है क्यों हम अपने ही राष्ट्र में हिन्दी की मौलिकता को नहीं बचा पाये और क्यों अंग्रेजी जैसी निर्धन भाषा हमारे ऊपर शासन करने में सफल हो गयी? इस प्रश्न के विस्तृत उत्तर हमें इतिहास से ही मिल सकते हैं। हिन्दी की मौलिकता को जहां हमने मुस्लिम आक्रमणकाल में खो दिया वहीं अंग्रेजी मैकाले के कुटिल षडयंत्रों के द्वारा भारतीय तंत्र में घुसेड़ी गयी। मैकाले भारत की रीढ़ तोड़ने के अपने सपने में काफी सीमा तक सफल रहा किन्तु सांस्कृतिक मानसिक परतंत्रता की स्थायी व्यवस्था नेहरू जैसी मानसिकताओं ने अथवा संविधान निर्माताओं की कुछ भयंकर भूलों (जैसे कि उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय जहां से आम नागरिक का ही सीधा संबंध है, की कार्मिक भाषा अंग्रेजी निर्धारित करना {अनुच्छेद 348}) ने ही की। संविधान निर्माण के समय (अनु. 344.2 के अनुसार) अंग्रेजी को हिन्दी की सहायक भाषा के रूप में मात्र 15बर्षों के लिए ही स्वीकार किया गया था। विचार यह था कि हिन्दी को सभी प्रान्तों की संयोजक भाषा के रूप में स्थापित होने का समय मिल जाएगा क्योंकि हिन्दी दक्षिण भारत में नहीं समझी जाती थी किन्तु भारत के जयचंदी दुर्भाग्य ने पुनः रंग दिखाया और राजनीतिक लाभ के लिए कुछ ऐसे लोगों ने हिन्दी का विरोध आरंभ कर दिया जिन्हें अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा से न कोई आपत्ति थी और न ही क्षेत्रीय भाषाओं के लिए संकट की अनुभूति! यद्यपि इस समस्या का समाधान बिलकुल असंभव नहीं था क्योंकि उस समय जब अंग्रेजी को भारत की संयोजक भाषा बनाया गया था तब भारत की 1% से अधिक जनसंख्या भी अङ्ग्र्तेजी नहीं समझती थी, किन्तु भारतीय राजनीति की असफलता का यह एक बड़ा अध्याय था कि वह इस समस्या का निराकरण नहीं कर पायी। राजकीय कार्यों की जो व्यवस्था अंग्रेजों ने कर राखी थी उस स्थान पर क्षेत्रीय भाषाओं को आसानी ने बिठाया जा सकता था और संयोजन के लिए हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के बहुभाषी भी हमें मिल सकते थे। हिन्दी में उर्दू अरबी अथवा अंग्रेजी के शब्दों की गड्डमड्ड के स्थान पर निकटवर्ती क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों के समायोजन करके भाषायी द्वंद का सांस्कृतिक भावनात्मक हल निकाला जा सकता था किन्तु राजनैतिक स्वार्थों व अंग्रेजी मानसिकता के रक्तबीजों ने ऐसा नहीं होने दिया।

1965 में जब अंग्रेजी का संविधान द्वारा निर्धारित जीवनकाल समाप्त होने को था तब नेहरू ने इस अवधि को पुनः अनिश्चित काल के लिए बढ़ाने का प्रस्ताव पारित कराके इसे सदा सदा के लिए भारत के माथे मढ़ दिया। नेहरू ने यह दायित्व उस समय पं लालबहादुर शास्त्री जी को सौंपा था, संसद में विरोध प्रदर्शन होने पर शास्त्री जी ने कहा था कि मैं आप की बात समझता हूँ, सहमत भी हूँ किन्तु लाचार हूँ आप मेरी लाचारी भी समझिए..! इस प्रकार संविधान के अनु. 351 का निर्देश कि, संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी का प्रसार बढ़ाए और उसका विकास करे, धरा रह गया और आज हिन्दी अंग्रेजी की अनियंत्रित बाढ़ के सामने अपनी मौलिकता, स्वरूप व अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। 1991 के आर्थिक उदारीकरण के समय जब विदेशी कंपनियों का निवेश आरंभ हुआ था तब उन्होने अपनी व्यवसायिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बड़े पैमाने पर अपने कर्मचारियों को हिन्दी प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया था किन्तु भारत आने पर सच बिलकुल विपरीत निकला हम स्वयं ही अंग्रेजी के पीछे भागते हुए मिले और आज हिन्दी उनकी आवश्यकता नहीं वरन अंग्रेजी हमारी विवशता बन चुकी है।

हमें आवश्यकता नहीं कि हम रेल को लौहपथगामिनी अथवा नाइट्रोजन को नत्रजन, हाइड्रोजन को अद्रजन कहें किन्तु हमें आभास अवश्य होना चाहिए कि हमारी मातृभाषा इतनी समृद्ध व गंभीर है कि किसी भी तत्व या वस्तु को उसके जन्म गुण उपयोग के आधार पर नाम देने में सक्षम है, किन्तु दुर्भाग्य से कुछ तथाकथित प्रगतिवादी हिन्दी संस्कृत के इस दशदिशीय विस्तार को न समझकर मौलिक शब्दों के प्रयोग को रूढ़िवादिता कहकर अपने ज्ञान व आधुनिकता का परिचय देते हैं जबकि यथार्थ यह है कि विश्व की सभी जातियाँ किसी भी भाषा को अपने ही भाषायी सुर में ही बोलती है हैं। छठी शताब्दी या उसके बाद के अरबी फारसी इतिहासकारों ने भारतीय प्रान्तों व कई राजाओं के नाम भी अपनी ही भाषा शैली मे लिखे हैं। हिंदुस्थान को तो स्थायी रूप से हिंदुस्तान ही कर दिया गया। अमेरिका ने लंबी परतंत्रता के बाद अंग्रेजी को तो लिया किन्तु उच्चारण शैली अपनी ही रखी और आज अंग्रेजी के अमेरिकी उच्चारण के सामने ब्रिटिश उच्चारण गौड़ पड़ता जा रहा है। अंग्रेज़ भी भारत में 200 सालों में टुम के स्थान पर तुम नहीं सीख पाये किन्तु फिर भी हमारी मानसिक दासता हमें ब्रिटिश उच्चारण की नकल से मुक्त नहीं होने देती। हमारी अपनी ही दृष्टि में भारत को इंडिया कहना तो प्रगति का सूचक है किन्तु अपनी मातृभाषा के शुद्ध शब्दों का प्रयोग रूढ़िवादिता या विकास की धारा के विरुद्ध चलने जैसा है। मानसिकता की यह दासता हमारे भविष्य पर कई गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है। आज हमें भाषा कि मानसिक दासता से मुक्त होकर स्वाभिमान के साथ अपनी मातृभाषा के महत्व व उसकी राष्ट्रीय जड़ों को पहचानना होगा, अंग्रेजी की काल्पनिक श्रेष्ठता का अंत कर मातृभाषा के प्रयोग में गर्व अनुभूति करनी होगी। यह एक राष्ट्रीय कलंक है कि हमारे देश में एक शिक्षित योग्य नवयुवक को इसलिए रोजगार नहीं मिलता क्योंकि वह एक विदेशी भाषा नहीं बोल सकता! हमारे देश में अंग्रेजी  नहीं ज्ञान विद्वता की कसौटी होनी चाहिए और अंग्रेजी की आवश्यकता हमारे व्यापारिक हितों तक ही उसी प्रकार सीमित होनी चाहिए जैसे जर्मन, फ्रेंच, चाइनीज अथवा जापानीज़ की है। हिन्दी का विकास हमारे लिए मात्र भावनात्मक गर्व का विषय नहीं होगा हमारे व्यापारिक राजनैतिक हितों व राष्ट्रीय विकास की कुंजी सिद्ध होगी।

भारतेन्दु जी ने कहा था “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल”। आज हम इस सत्य को जितना शीघ्र समझ लेंगे उतना ही हमारे अस्तित्व के जीवित रहने की संभावना है।

द्वारा – वासुदेव त्रिपाठी॥

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