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कुछ महीने पूर्व जब अन्ना आंदोलन अंकुरित ही हो रहा था और अन्ना ब्राण्ड के शेयर उछलने शुरू ही हुए थे तभी मैंने अन्ना आंदोलन और समान्तरगामी रामदेव आंदोलन पर कुछ समीक्षात्मक लेख लिखे थे। तब मेरे लेख के कई बिन्दु कई बुद्धिजीवियों के गले नहीं उतर रहे थे, उन्हें मेरे लेख में अन्ना विरोध की गंध आ रही थी, यद्यपि मैंने सदैव अन्ना-रामदेव आंदोलन को एक साथ जोड़ने व जोड़कर देखने की ही वकालत की। यद्यपि मैंने कभी भी अन्ना की नियत पर संदेह नहीं क्या किन्तु अन्ना टीम मेरे प्रश्न चिन्ह की परिधि से कभी भी बाहर नहीं रही, और आज भी मैं उसी बिन्दु पर दृढ़ हूँ। चूंकि अन्ना का जीवन पूर्णतः ईमानदार व उज्ज्वल छवि का रहा है और वर्तमान में उनकी अवस्था भी ७०+ है अतः मैं यह कहना उचित नहीं समझता कि अन्ना किसी राजनीतिक उद्देश्यों अथवा सुनियोजित रणनीति को लेकर आंदोलन में उतरे, किन्तु अन्ना की छवि को मोहरा बनाते हुए आंदोलन के पीछे कई सूत्रधार हैं, छटती धुंध में आज यह संभावना तथ्य में बदलती दिख रही रही है। फोर्ड जैसी बदनाम कंपनियों के पैसों से NGO चलाने वाले मनीष शिशोदिया एवं अफजल गुरु के पैरवीकार व कश्मीर को भारत का भाग मानने से मना करने वाले भूषण जैसों की देशभक्ति व मंतव्य संदेह के घेरे से बाहर नहीं रह गए हैं। यदि टीम अन्ना के जनलोकपाल जैसा कोई कानून जोकि प्रधानमंत्री व CBI से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक को अपने अंकुश में लेना चाहता है, आ जाता है तो केजरीवाल, भूषण व मनीष शिशोदिया जैसे लोग ही पर्दे के आगे अथवा पीछे नीति नियामक की भूमिका में आ जाएंगे। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार कितना समाप्त हो पाएगा कहना कठिन है किन्तु सत्ता संचालन का स्वरूप अवश्य बादल जाएगा जिसकी चर्चा भी होती रही है। लोकपाल की जबाबदेही के लिए जनलोकपाल व्यवस्था करता है कि एक आम आदमी भी लोकपाल के विरुद्ध शिकायत करने का अधिकार रखेगा किन्तु जिस देश में आम आदमी शिकायत करके एक हवलदार का भी बालबांका नहीं कर सकता वहाँ लोकपाल की शिकायत उन्हीं लोगों से कर के क्या बिगाड़ लेगा जो स्वयं लोकपाल के आधीन हैं? यह स्थिति चोर-चोर मौसेरे भाई जैसी ही हास्यास्पद लगती है..! अभी जो परिदृश्य साफ हो रहा है उससे इतना तो स्पष्ट है कि लोकपाल की आंखमिचौली इतना शीघ्र नहीं समाप्त होने वाली है। अन्ना की ३० अगस्त की समय सीमा भी संसद के शीतकालीन सत्र तक बढ़ चुकी है और इसी बींच टीम अन्ना के रुख भी बदलते लग रहे हैं। अब अन्ना टीम की चिंताएँ लोकपाल या भ्रष्टाचार तक ही सीमित नहीं रहीं वरन आडवाणी की रथयात्रा, मोदी का उपवास, संजीव भट्ट की गिरफ्तारी, गुजरात दंगे व कसाब को फांसी भी उनकी चिंतन सूची में आ चुके हैं। अराजनैतिक आंदोलन होते हुए भी टीम अन्ना को इस बात की अत्यधिक चिंता रही है कि उनके कार्य का श्रेय कहीं रामदेव को तो नहीं जा रहा! कोई उनके आंदोलन को हैक तो नहीं कर रहा! अथवा कहीं आंदोलन को संघ से जोड़कर तो नहीं देखा जा रहा! ऐसे ही बिन्दुओं के आधार पर कई विश्लेषकों ने अन्ना आंदोलन को नौटंकी व अन्ना को कोंग्रेसी दलाल तक कह डाला। इसके पीछे कुछ अन्य तथ्य व आधार भी हैं जैसेकि लोकपाल आंदोलन की मीडियाई आँधी में विशाल जनसमर्थन के बाबजूद रामदेव के काला धन वापसी अभियान को ठिकाने लगा दिया जाना, NGO पतियों के झुंड टीम अन्ना का NGOs को लोकपाल की निगरानी में लाने के प्रश्न पर बिदक जाना, सरकार पर बार बार वार करने के बाबजूद सर्वशक्ति केंद्र सोनिया-राहुल को किसी भी तरीके के प्रश्न चिन्ह से बाहर रखना…, इत्यादि। किन्तु मैं इस पूरे विषय को थोड़ा पृथक दृष्टिकोण से देखता हूँ जिसमे मैं लोकपाल की आंखमिचौली में कालेधन के मुद्दे, जिसकी बयार काफी समय पहले स्व. श्री राजीव दीक्षित जैसे स्वदेशी चिंतकों ने तैयार की थी व 2009 चुनावों में आडवाणी द्वारा इसे राजनैतिक रूप से भी उठाया गया था, को गुम कर देने की पूर्वनिर्धारित नीति की संभावना को मैं पूर्णरूपेण स्वीकार करता हूँ क्योंकि यह एक ऐसा बिन्दु है जिसका सच यदि पूर्णतयः सामने आ गया तो सबसे अधिक कोंग्रेसियों की ही गर्दन नपेंगी और उसमें सबसे पहला नंबर सोनिया फ़ैमिली का ही हो सकता है। ऐसे किसी खेल में टीम अन्ना की पर्दे के पीछे की भूमिका की समीक्षा मैं अग्निवेश व उनकी लीक हुई विडियो से आरंभ करना चाहूँगा जिसमें वे कपिल जी से अन्ना का पागल हाथी सा होने व टीम अन्ना का सिर पर चढ़ने की बात कर रहे थे। कई चैनलों को दिये गए साक्षात्कार व इस विडियो से इतना तो स्पष्ट है कि अग्निवेश सरकार से सीधे संपर्क में थे और वो इस आंदोलन से सरकार को किसी भी रूप में छति नहीं होने देना चाहते थे। अतः यः प्रश्न भी निराधार नहीं होगा कि इससे पहले अग्निवेश आंदोलन के साथ इसलिए सक्रिय थे क्योंकि उन्हें इसकी दिशा व अंत पहले से ही पता था और फिर कुछ ऐसा हुआ जोकि पूर्वनिर्धारित घटनाक्रम के विपरीत था अतः अग्निवेश बिदक गए.? क्या अग्निवेश टीम अन्ना में अकेले थे जोकि सरकार से इस तरह संपर्क में थे? 16 अगस्त व बाद के घटनाक्रम में सरकार के पके हुए खिलाड़ियों द्वारा की गयी चूकें व दिखाई गयी हड़बड़ी क्या किसी पूर्वतय घटनाक्रम में अप्रत्याशित मोड़ का परिणाम थीं.? फिर ऐसा क्या हुआ कि रामलीला मैदान से अरविंद केजरीवाल व प्रशांत भूषण सरकार के विरुद्ध खुलकर दहाड़ने लगे और आज हिसार में टीम अन्ना काँग्रेस के विरोध में प्रचार को तैयार है? कई विश्लेषक रामलीला मैदान की दहाड़ को ड्रामे से अधिक कुछ नहीं मानते क्योंकि उन्हें लगता है कि जितना इस ड्रामे को दमदार बनाया जाएगा उतना ही इसके सच्चे होने का भ्रम लोगों को होगा और काले धन के मुद्दे से जोकि एक ही झटके में काँग्रेस के 125 साल पुराने ढांचे को धूल धूसरित कर सकता है, जनता का ध्यान बँटेगा। हिसार चुनाव में टीम अन्ना के रुख को इन्हीं गणनाओं से देखा जा रहा है किन्तु जहां तक मुझे लगता है इस सब से भी काँग्रेस को गहरी छति हो चुकी है, यदि सब कुछ काँग्रेस के हाथ में होता तो टीम अन्ना को इतने आगे जाने की छूट कदापि नहीं मिलती। संभावना यही हो सकती है कि अग्निवेश जिसने सरकार की कृपा व खाद पानी पर ही अपनी तथाकथित समाजसेवा की खेती फैलाई है, सरकार के पाले में ही रह गए किन्तु भूषण केजरीवाल आंदोलन को मिल रहे अपार जनसमर्थन की शक्ति को आंक गए व पृथक राजनैतिक केंद्र बनने की महत्वाकांक्षा में ऊपर उठते चले गए। यह राजनैतिक महत्वाकांक्षा का विस्तार ही हो सकता है जिसने आंदोलन की दिशा को अचानक बदल दिया व कपिल सिब्बल जैसों के सामने पूर्वगणना से पूर्ण भिन्न परिस्थितियाँ आ गईं जिससे बदहवासी में कई गलत फैसले लेने पड़ गए, टीम अन्ना के अभियान का दायरा भ्रष्टाचार से कहीं आगे बढ़ गया और हिसार चुनाव में टीम अन्ना काँग्रेस को धमकी व अपनी ज़ोर आजमाइस पर उतर आई। किन्तु समूचे घटनाक्रम में टीम अन्ना कि महत्वकांक्षायें व काँग्रेस से तकरार कितनी भी क्यों न बढ़ गयी हो, कुछ अनुत्तरित प्रश्न जड़ों को कुरेदते ही हैं जैसे कि टीम अन्ना ने काँग्रेस पर कितने भी खुलकर वार क्यों न किए हों वे लोकपाल की सीमा से बाहर क्यों नहीं पहुँच रहे थे? राष्ट्रमंडल अथवा 2G जैसे मुद्दों का प्रसंग भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध टीम अन्ना की लड़ाई में गुम सा क्यों दिखा? आडवाणी की रथयात्रा व मोदी के उपवास को ढकोसला व छल बताने वालों को राहुल के झोपड़ी दर्शन के चोंचलों व बेतुकी बयानबाजियों में हरिश्चंद्र का सत्य क्यों दिखाई देता है? लोकपाल के बाहर के किसी भी विषय पर जब भी टीम अन्ना की रुचि गयी वह भाजपा अथवा संघ विरोधी ही क्यों था? संघ प्रमुख यदि कहते हैं कि स्वयंसेवकों ने हाल ही के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर भाग लिया तो इससे केजरीवाल की त्यौरियां क्यों चढ़ जाती हैं? क्या केजरीवाल दावा कर सकते हैं कि उनके आंदोलन में स्वयंसेवकों की कोई भूमिका नहीं थी अथवा स्वयंसेवक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भाग नहीं ले सकते? ये प्रश्न अब आम आदमी के मस्तिष्क में खड़े हो चुके है, अब धुंध छट रही है और वास्तविक रूप निखर रहा है। अब यह भी साफ होने लगा है कि अन्ना एक ब्राण्ड के रूप में ही प्रयोग किए गए व प्रयोग किए जा रहे हैं, उनकी ईमानदारी की आड़ में कई महत्वाकांक्षाएं व बड़े कारण छिपे हो सकते हैं। अन्ना जो बोलते हैं वह मनमोहन सिंह के बोलने जैसा ही होता है जिसके पीछे शब्द किसी और के होते हैं, यही कारण है कि न जाने किन आंकड़ों के आधार पर अन्ना कहते हैं कि काँग्रेस भ्रष्टाचार में ग्रेजुएट ही है जबकि भाजपा ने पीएचडी कर रखी है…? जब कभी अन्ना अपने आपसे कुछ बोल जाते हैं, मोदी की प्रशंसा कर जाते हैं तो उन्हें तुरंत ही अपना वक्तव्य बदलना पड़ता है और सारे तथ्यों व सच्चाई को धता बताते हुए गुजरात को सबसे भ्रष्ट राज्य बताना पड़ता है क्योंकि शायद अरविंद केजरीवाल ऐसा ही चाहते हैं। जब अन्ना एक सैनिक के जज्बे में कसाब को सरेआम फांसी पर लटका देने की बात बोल जाते हैं तो उन्हें थोड़े ही समय बाद कसाब के प्रति प्रेम जाग जाता है और उन्हें लगने लगता है कि इस आतंकवादी के लिए फांसी की सजा अनुचित होगी, मात्र कारावास ही पर्याप्त है क्योंकि शायद प्रशांत भूषण को ऐसा ही लगता है..! महिमा हमारी भावुकता की है जिसने एक ही झटके में “मैं भी अन्ना” “तू भी अन्ना” करते हुए इतने अन्ना खड़े कर दिये कि असली अन्ना अन्ना के मुखौटे में कुछ अन्नाओं की कठपुतली बनकर रह गए.! देखना यह है कि जब यह चकाचौंध हटेगी और अन्ना-अन्ना का शोर थमेगा जादूगर पाशा इस रंगमंच से क्या क्या गायब कर चुका होगा..? . By- वासुदेव त्रिपाठी॥
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