- 68 Posts
- 1316 Comments
जैसा कि कई बार होता है मस्तिष्क की मुख्य धाराएँ सहविचारों को गौड़ कर देती हैं, आज मैं भारत के संविधान को पढ़ते-पढ़ते सृष्टि और जीवन के संविधान के चिंतन में डूब गया और मस्तिष्क प्रमाण, विपर्यय, विकल्प के ब्रम्हाण्डों की यात्रा करता हुआ अंततः तंद्रा में जा पहुंचा। कुछ ही समय में कक्ष के सीमित स्थान में आहट ने तंद्रा में विघ्न डालते हुए मस्तिष्क को चेतना व आश्चर्य की ओर खींचा, आश्चर्य इसलिए क्योंकि मेरा कक्ष ऐसी हिमालयी गुफा कि भांति है जहां मेरी पदचाप के अतिरिक्त किसी का आगमन नहीं होता.!
वस्तुतः आज मैंने द्वार खुला छोड़ रखा था जिसके फलस्वरूप दो बंदर, एक मेरे पैरों के पास और एक सोफ़े के नीचे बैठे थे…. मेरी आँखें खुलीं किन्तु उन दोनों ने मेरे जागने की ऐसे उपेक्षा की जैसे मैं उनका ही जात-भाई हूँ..!
अब उन्होने मेरी चिंता न करते हुए निःशंक अपना वानरी खेल आरंभ कर दिया। उनमें से एक मोटे वाले ने पोलिथीन को फाड़ा लेकिन उसमें केले के छिलके निकले, निश्चित रूप से उसे मुझपे खुन्नस आई होगी.. दूसरा छोटा-दुबला वाला मेरी मेज पे था, उसने सारी पुस्तकों को तितर बितर किया, मंजन-ब्रश और मोर्टिन को फेंका, दर्पण को भी उठाया मुझे लगा ‘जैसाकि बंदरों के बारे में कहा जाता है’ कि अब इसकी रुचि की वस्तु इसे मिल चुकी है और मुझे एक नया दर्पण लाना ही होगा किन्तु उसने उसे उपेक्षापूर्वक एक ओर डाल दिया, शायद बंदर ये समझ चुके हैं कि उनका चेहरा भले ही मनुष्य जैसा सुन्दर न हो किन्तु उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं क्योंकि उनके पास मनुष्यों से सुन्दर स्वच्छ हृदय है। फिर उसे नवरतन ठंडा तेल के पाउच हाथ लगे, उसने उन्हें फाड़ा, मैंने मना किया किन्तु उसने फैले तेल को जीभ से स्वयं ही चख के परीक्षण किया फिर दीर्घ समय से व्यर्थ पड़े ENO को और उसके बाद फेबीकॉल ट्यूब को भी फाड़ के चखा…. मैंने कहा विश्वास न करना भारी पड़ेगा किन्तु आज के मनुष्य की धूर्तता के कारण इन जीवों का हमारे ऊपर विश्वास ही नहीं रहा..! कुछ खास हाथ न लगने पर उसने दिशा बदली और उछलकर मेरे पेट पर आ बैठा, मैंने पूंछा भाई मेरी सहृदयता पर इतना विश्वास है या अपने दांतों पर.? अब उसने मुझपे विश्वास किया अथवा जोखिम उठाया, मुझे पुरस्कार देना बनता था अतः मैंने एक पोलिथीन जिसमें किशमिश और बादाम थीं उसके हाथ में थमा दिये। मोटा वाला जो अब तक कूड़े की पोलिथीन से ही अपनी जुगाड़ करने के प्रयास में था, इधर के माल को देखते हुए पूर्ण त्वरण से मेरी ओर झपटा किन्तु दुबला वाला अपनी सामर्थ्य भर मुट्ठी भरकर झटके में ऊपर चढ़ गया। बलबान का भय और “उदर प्रथम की धारणा” चेतन जगत में स्वाभाविक हैं।
दोनों ने बादाम चखना प्रारम्भ कर दिया लेकिन अब वे सूंघ सूंघ कर बादाम खा रहे थे। वस्तु की अनुप्लब्धता व बहुप्लब्धता ही उसका मूल्य निर्धारित करती हैं। दोनों की निश्चिंत उछलकूद व मेरे आसपास विचरण मेरे कक्ष को वास्तव में आश्रम सी नैसर्गिक अनुभूति दे रहे थे, किन्तु उनके शरीर की दुर्गन्ध थोड़ी कम रुचिकर थी…. मुझे लगा वातावरण में प्रकृतिक वायु का भी आज कितना आभाव हो चुका है जो आज इन जीवों को स्वच्छ कर सके..!!
दोनों ने पूरे कक्ष का विस्तारपूर्वक निरीक्षण किया, इन जीवों को भी मानव के संसाधनों से कितना घनिष्ठ परिचय हो चुका है उन्हें पता है खाने पीने की वस्तुएं कहाँ कहाँ रखी जा सकती हैं और कौन कौन से नए आविष्कार हो चुके है जोकि उनके प्रयोजन के हैं अथवा नहीं…! उनके चलते चलते मैंने सोचा फोन के कैमरे में भी इन्हें ले लिया जाए। इसके बाद दोनों चले गए किन्तु पुनः मुझे मेरे लघु आवास की स्वछता का बोझ दे गए। मेरे जिस एकांत निवास में व्यक्तियों का भी आगमन नहीं होता वहाँ दो बंदरों का अतिक्रमण भी मुझे नहीं खला क्योंकि मैं सोच रहा था अतिक्रमण ये मूक जीव मनुष्य के परिक्षेत्र में कर रहे हैं अथवा मनुष्य इनके परिक्षेत्र में…???
.
-वासुदेव त्रिपाठी
Read Comments