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कूटनीतिक हार का तमाचा; खतरे में सुरक्षा

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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Flag-Pins-Nepal-Indiaयद्यपि अमेरिका जैसे देशों में सत्तानिष्ठों की आर्थिक, वैदेशिक, सामरिक नीतियाँ राजनीति की दिशा दशा निर्धारित करती हैं किन्तु हमारे देश में ये विषय आम जनता की रुचि के नहीं समझे जाते..! एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाक्रम में UN JOINT INSPECTION UNIT के एशिया पैसिफिक क्षेत्र की सीट के लिए चुनाव में भारत के ए. गोपीनाथन ने चीन के झांग यान को 77 वोटों की अपेक्षा 106 वोटों से सशक्त शिकस्त दी। भारत की विजय बड़ी सफलता है विशेषकर उन परिस्थियों में जब भारत और चीन के संबंध सतत प्रतिस्पर्धी होते जा रहे हैं। चीन की विश्व मंच पर बढ़ती आक्रामकता व दादागिरी भारत के लिए सतत चिंता बढ़ाने वाला विषय बनता जा रहा है। महत्वपूर्ण यह है कि पिछले 10 बर्षों से इस सीट पर कब्जा जमाये चीन इस बार भी भारत पर अपनी दावेदारी वापस लेने का दबाब डाल रहा था। बताते हैं कि चीन के दबाब के आगे विदेश मंत्रालय घुटने टेकने को तैयार हो गया था किन्तु फिर अंतिम अवसर पर रुख बदलते हुए दावेदारी ठोंकी गयी।
जहां एक ओर इस विजय को भारत की बड़ी सफलता के रूप में देखा जा रहा है वही इस प्रक्रम में बड़ी भारतीय कूटनीतिक असफलता का प्रमाण भी सामने आया। भारत के प्राचीन सांस्कृतिक मित्र नेपाल ने भारत के विरोध में चीन के लिए मतदान किया। इस घटनाक्रम का यदि विशद परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जाए तो मैं समझता हूँ कि इस जीत को कूटनीतिक सफलता की तुलना में अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक समीकरण इसलिए अधिक माना जाना चाहिए क्योंकि आज चीन जिस आक्रामकता से अपनी शक्ति बढ़ा रहा है वह विश्व समुदाय के अधिकतर देशों के राजनैतिक, आर्थिक व वैश्विक हितों के प्रतिकूल है। अमेरिका ब्रिटेन जैसे देश इसे खुली चुनौती के रूप में देख रहे हैं। अमेरिका ने भविष्य की चेतावनियों कि देखते हुए आस्ट्रेलिया व पैसिफिक समुद्र क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थित को भी बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया है जिससे चीन की व्याकुलता इन दिनों बढ़ती जा रही है। अमेरिका ऑस्ट्रेलिया ने भारत को त्रिपक्षीय सैन्य समझौते का प्रस्ताव भी दिया था जिसे कि भारत ने अस्वीकार कर दिया है। अतः इन परिस्थियों में चीन के प्रतिरोध में भारत का सहयोग विश्व के कई देशों की एक कूटनीतिक विवशता है। किन्तु भारत के संदर्भ में यदि हम बात करें तो हम न ही 1962 के इतिहास से कुछ सीख सके हैं और न ही आज की परिस्थितियों में हमारी नींद खुली है! रणनीतिक भूलों का हमारा इतिहास अत्यंत पुराना है, 1947 में भारत विभाजन, फिर कश्मीर समस्या, 1962 में चीन से छलपूर्ण पराजय, 1971 में 90,000 पाक सैनिकों को बिना किसी मूल्य के मुक्त कर देना, श्रीलंकाई निर्णयों में हड़बड़ी व पाकिस्तान पर दबाब बना पाने में अक्षमता भारतीय कूटनीतिक पराजय के कुछ बड़े उदाहरण हैं। दुर्भाग्य का चरमोत्कर्ष यह है कि यह दशा उस राष्ट्र की है जिसने सदियों तक नीति के गंभीर अन्वेषण से नीति को जीवन में और जीवन को नीति में समाकलित किया, नीति दर्शन पर जहां शुक्रनीति, विदुरनीति, कणकनीति व चाणक्यनीति जैसे अमर ग्रन्थों की रचना हुई। किन्तु हम नीति को भूल गए और परिणामतः 712 AD में सिंध में राजा दाहिर की पराजय से लेकर आजतक प्रत्येक राष्ट्रीय छति के पीछे हमारी नीतिगत विफलता ही उत्तरदायी रही है, क्योंकि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है “नीतिरस्मि जिगीषताम” (10/38) अर्थात विजय की इच्छा रखने वालों में मैं नीति हूँ।
आर्थिक व सामरिक शक्ति बढ्ने के साथ साथ अरुणाचल प्रदेश समेत सभी मुद्दों पर चीन की आक्रामकता भी बढ़ती जा रही है, यहाँ तक कि यदि दलाई लामा भारत में कोई धार्मिक सभा का आयोजन करते हैं तो चीन भारत को घुड़की देकर सीमा वार्ता रद्द कर देता है। यदि हम भौगोलिक स्थितियों पर दृष्टि डालें तो तो चीन हमें पूर्व में बांग्लादेश, म्यांमार, थायलैंड, वियतनाम व दक्षिण में श्रीलंका की ओर से घेर चुका है। पश्चिम में पाकिस्तान चीन संबंध व पाक अधिकृत कश्मीर में चीनी सेना की उपस्थिति संदेह से परे है। अर्थात चीन भारत को चारों ओर से घेर चुका है। यह भारत की भयानक कूटनीतिक पराजय है। किन्तु उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि भारत सरकार आम जनता की आँखों मे धूल झोंकते हुए इन बिन्दुओं पर पर्दा डालने का भरकस प्रयास कर रही है। ब्रम्हपुत्र पर चीन द्वारा बनाए विशाल बांध की सैटेलाइट पिक्चर मीडिया चैनलों द्वारा घंटों दिखाये जाने के बाद भी मनमोहन सिंह कहते हैं कि उन्हें इस प्रकार की कोई सूचना नहीं है..!!इन विषम परिस्थितियों में नेपाल का भारत के विरुद्ध चीन के समर्थन में खुलकर आ जाना भारतीय रणनीतिकारों के मुंह पर करारा तमाचा है। भारत नेपाल के बींच कुछ सीमा विवाद भी रहे जिन्हें 1814-16 के अंग्रेज़-नेपाल युद्ध के समय से उत्पन्न माना जाता है किन्तु फिर भी नेपाल भारत का घनिष्ठ बना रहा और भारत-नेपाल सीमाएं एक देश के दो राज्यों की भांति खुली रहीं, ऐसा इसलिए क्योंकि दोनों राष्ट्र नागरिक स्तर पर एक साझी धार्मिक सांस्कृतिक विरासत रखते हैं। मैं प्रायः कहता हूँ कि राष्ट्र भौगोलिक सीमाओं का एक भूखंड मात्र नहीं वरन समान धार्मिक सांस्कृतिक समरसताओं का परिष्कृत परिक्षेत्र होता है। यही कारण है कि पाकिस्तान अपने जन्म के दिन से ही हमारा शत्रु बन गया, बांग्लादेश जोकि भारत की ही अनुकम्पा से ही पाकिस्तानी अत्याचारों से मुक्त होकर स्वतन्त्र देश बन सका आज भी हमारे लिए आतंकवादी ही जनता है, जो बौद्ध चीन सदियों से भारत को गुरुराष्ट्र की श्रद्धास्पद दृष्टि से देखता रहा वही साम्यवादी बनते ही भारत प्रबल शत्रु बन बैठा। सदियों तक साम्यवाद, साम्राज्यवाद व पूंजीवाद के वैचारिक दुराग्रह के कारण परस्पर खून की होली खेलने वाले यूरोपीय देश आज समान सांस्कृतिक विरासत के कारण ही अपनी सीमाओं को खुला छोड़े हैं। क्या इस प्रकार के सीमा समझौते कोई यूरोपीय देश किसी अरब देश के साथ कर सकता है..? सम्पूर्ण विश्व का इतिहास ऐसे ही उदाहरणों से भरा है किन्तु हम फिर भी इस सत्य को नहीं सीख पाये और नेपाल जैसे अपने अंतरतम मित्र को लगभग-लगभग हाथ से गंवा बैठे। वस्तुतः प्रश्न यह है कि कि इसे भूलजनित कूटनैतिक असफलता मात्र माना जाए अथवा विषाक्त विचारधारा का दुराग्रह.? नेपाल में भारत विरोध को उसी समय से हवा मिलने लगी थी जब माओवाद ने वहाँ अपनी विषवेल फैलाना आरंभ किया था ऐसा नहीं है कि नेपाल में फैलता माओवाद और उसके दुष्परिणाम भारत के संज्ञान में नहीं थे किन्तु प्रश्न वही है जिन सरकारों ने अपनी ही सीमाओं में माओवाद के खूनी खेल को रोकने की कभी आवश्यकता नहीं समझी वे देश के कूटनीतिक हितों के लिए दूसरे देश में सक्रियता कैसे दिखा सकती थीं.? नेपाल से राजनैतिक सम्बन्धों के प्रति भारतीय तंत्र की निष्क्रियता काफी पुरानी है जिसके परिणाम स्वरूप राजशाही के समय भी चीन नेपाल को अपनी ओर लामबंद करने में कई बार सफल रहा किन्तु विगत कुछ वर्षों में भारत द्वारा नेपाल से सांस्कृतिक सम्बन्धों को घातक रूप से उपेक्षित किया गया है। चीन के प्रधानमंत्री तीन दिवसीय विशेष यात्रा पर काठमांडू आने वाले हैं और उसके तुरंत बाद नेपाली प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराय बीजिंग जाएंगे। नेपाल जैसे देश में चीनी प्रधानमंत्री का तीन दिन रुकना और नेपाली राजनायिकों को अपने यहाँ विशेष आमंत्रण देना चीन की नेपाल पर सक्रियता को दिखाता है जबकि बाबूराम भट्टाराय की पिछले दिनों हुई भारत यात्रा के समय इन्दिरा गांधी एयरपोर्ट पर आगवानी के लिए भारत का एक मंत्री भी नहीं पहुंचा था! भारत की नीतियों ने ही नेपाल को भारत से दूर व नेपाल में माओवाद को पोषित किया है जिसके परिणामस्वरूप ही चीन साझी धर्म-संस्कृति के बाद भी नेपाल को भारत के विरुद्ध एक पटल बनाने में सफल हो सका। सच तो यह है कि नेपाल के साथ भारत के सम्बन्धों की उपेक्षा इसलिए की गई क्योंकि नेपाल को चीन के विपरीत भारत के साथ बांधे रखने के लिए नेपाल मे माओवाद का विरोध व हिन्दुत्व का पोषण करना आवश्यक था जोकि हिन्दू द्वेष से पीड़ित राजनेताओं को स्वीकार्य नहीं था। हमारे देश की जनता एक भयंकर भ्रम में है कि मुस्लिम तुष्टीकरण व हिन्दू हितों के विरोध की राजनीति मात्र वोट बैंक की राजनीति है, इसके विपरीत सत्य यह है कि सत्ता शक्ति के शिखरों पर वे लोग पहुँच चुके हैं जिन्हें इस राष्ट्र की मूल संस्कृति व मौलिक स्वरूप से ही आंतरिक घृणा है। कान्वेंट व साम्यवाद के विषाणु उनके रक्त को संक्रमित कर चुके हैं।
बड़े आश्चर्य की बात है कि “look east” की नीति के अंतर्गत मनमोहन सरकार भूटान, कंबोडिया व लाओस जैसे देशों से संबंध प्रगाढ़ करने के लिए बौद्ध धर्म का सहारा ले रही है किन्तु पर्याप्त संख्या मे जहां हिन्दू जनसंख्या है उन देशों मे हिन्दुत्व आधारित नीति को नीति को संवर्धित करने से कतराती है। आधुनिक भारतीय विचारक इन दो सहोदर संस्कृतियों को एक दूसरे से पृथक देखते हैं और पृथक ही देखना चाहते हैं.! यह समस्त विश्लेषण अनुमान आधारित निष्कर्ष नहीं है अपितु वोट बैंक व हिन्दूघात की घिनौनी भारतीय राजनीति का प्रमाणित चेहरा है। ऐसा भी नहीं है कि विश्व समुदाय भारतीय राजनीति की इस बिडम्बना से अपरिचित हो, भारत की नीतियों के संदर्भ में स्विट्ज़रलैंड के डिप्लोमैटिक केबल में कहा गया था कि भारत एक मूर्ख देश है जो अपनी हानि-लाभ नहीं समझता..!! इससे अधिक शर्म का विषय हम भारतीयों के लिए और क्या हो सकता है.?
चीन या नेपाल हमारे व्यापक राष्ट्रीय हितों की विफलताओं के अकेले उदाहरण नहीं हैं, विकिलीक्स द्वारा प्रकाशित इजराईली प्रपत्रों में इज़राइल की ओर से अमेरिका से यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि काँग्रेसनीत यूपीए सरकार के आते ही भारत की नीतियों में गंभीर नकारात्मक परिवर्तन हुए है, भारत सरकार मुसलमानों की नाराजगी के भय से इज़राइल से दूरी बनाकर चल रही है। आपने भी ध्यान दिया होगा 2004 में यूपीए के सत्ता में आने के बाद से भारत-इज़राइल के बड़े नेताओं का आना जाना बंद सा है। हमें समझना पड़ेगा कि आज तुष्टीकरण की राजनीति हमारे वैश्विक हितों, सम्बन्धों व नीतियों तक को प्रभावित करने की स्थित में पहुँच गयी है। एक आमूलचूक प्रश्न यह भी है कि जिस समुदाय की बहुसंख्यक निष्ठाएँ भारतीय हितों से अधिक फिलिस्तीन के लिए समर्पित हैं उसकी राष्ट्रभक्ति कितनी स्वाभाविक मानी जानी चाहिए..?? इज़राइल भारत का सदैव सकारात्मक मित्र रहा है साथ ही हम इज़राइल-अमेरिका की निकटताओं को किन्हीं विषम परिस्थितियों में अमेरिका को साधने के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं यदि हम इस कूटनीतिक कड़ी को सुदृढ़ कर पाएँ! किन्तु जिस भारतीय राजनीति में नेताओं को चुनते समय राष्ट्रीय महत्व के इन बिन्दुओं की कोई भूमिका ही न हो वहाँ ऐसी आशा निरर्थक ही प्रतीत होती है। वस्तुतः ये परिस्थितियाँ हमारे राष्ट्रीय हितों के लिए भयानक अपशकुन ही हैं।
इस लेख का उद्देश्य मेरे अपने लेखन शौक की पूर्ति अथवा पत्रकारीय औपचारिकताओं की इतिश्री नहीं वरन आपको यह बताना है कि जिन विषयों को आप अपनी रुचि, कार्यसीमा व विचारक्षेत्र से बाहर समझकर नेताओं के लिए छोड़ देते हैं वे कल आपसे आपकी नयी नवेली स्वाधीनता को छीनकर आपको पुनः गुलामी की बेंड़ियों मे जकड़ सकते हैं..!! जागरूकता ही एकमात्र मार्ग है॥
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-वासुदेव त्रिपाठी

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