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पाँच राज्यों के चुनावी चक्र पर इस समय समूची भारतीय राजनीति की निगाहें टिकी हुई है। गोवा जहां राष्ट्रीय राजनीति को बड़े स्तर पर प्रभावित नहीं करता वहीं मणिपुर में भी कॉंग्रेस के अतिरिक्त राष्ट्रीय राजनीति के अन्य प्रभावशाली दल अस्तित्व में नहीं हैं। पंजाब और उत्तराखंड दो प्रमुखतम दलों, भाजपा व कॉंग्रेस, के बींच की दंगलभूमि होने के कारण काफी रुचिकर हैं। किन्तु इन सब से पृथक दिल्ली की सत्ता में सर्वाधिक 80 सीटों का हस्तक्षेप रखने वाले उ.प्र का चुनावी परिदृश्य देश के आगामी राजनैतिक भविष्य को काफी सीमा तक प्रभावित करेगा यही कारण है कि वर्तमान में उ.प्र राजनैतिक सरगर्मियों का सबसे बड़ा बाजार है। राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण उ.प्र सबसे उलझी राजनीति का रणक्षेत्र भी है, करीब पिछले एक दशक से सपा बसपा के जातीय चक्रव्यूह के आगे भाजपा व कॉंग्रेस जैसे राष्ट्रीय खिलाड़ी मात खाते आ रहे हैं। जाति भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा आधार रहा है किन्तु यह आधार बिहार व उ.प्र में आकर पूर्णतः निर्णायक हो जाता है। यह भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी बिडम्बना या दुर्भाग्य है।
इस बार उ.प्र का चुनाव पिछले चुनावों से थोड़ा अलग दो स्तरों पर गतिशील है। पूर्व की भांति जमीनी स्तर पर तो प्रत्याशी निर्धारण व नेताओं की सभाओं से लेकर अन्य समस्त नीतियाँ जातीय समीकरणों के आधार पर तय हो रहीं हैं किन्तु शीर्ष स्तर से चुनावी वादे, घोषणाएँ, प्रचार व बयानबाजी का मुख्य केन्द्र जाति से हटकर मुस्लिम वोट बैंक की ओर खिसक चुका है। मायावती की दलितों को लेकर दिखने वाली आक्रामकता अब मायावती के स्वयं के घेरे जाने पर ही दिखने को मिलती है। हाँलाकि उन्होने लखनऊ में बसपा की ब्राम्हण सभा के समय ब्राम्हणों को क्षत्रियों का भय दिखाने का प्रयास अवश्य किया अन्यथा मायावती मुल्ला-इमामों की खुशामदी तथा मुस्लिम आरक्षण को लेकर केन्द्र सरकार को चिट्ठियों व आरक्षण के वादों को लेकर ही अधिक सजग दिखती रहीं हैं। मुस्लिम वोटों को लेकर जो छीनाझपटी का दौर शुरू हुआ है उसे मुख्यतः सपा व कॉंग्रेस अपने लिए गलाकाट प्रतियोगिता के रूप में देख रहे हैं। कभी अयोध्या में निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलवाकर मुसलमानों के मसीहा बनकर उभरने वाले मुलायम सिंह कल्याण सिंह फैक्टर से नाराज हुये मुसलमानों को पुनः एकबार अपने पाले में लाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार दिख रहे हैं। आजम खाँ की वापसी, वन्देमातरम विरोधियों को समर्थन, बटला आतंकवादियों के लिए सहानुभूति व रामजन्मभूमि पर इलाहाबाद हाइकोर्ट के निर्णय को मुसलमान विरोधी बताकर मुलायम सिंह ने पुनः मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्त करने का भरकस किया भी है। मुलायम सिंह का अपने मुस्लिम थोक को सुरक्षित रखने के लिए इस प्रकार आक्रामक होना और भी आवश्यक हो गया था क्योंकि कॉंग्रेस जातियों में विभाजित हिन्दू समुदाय की कमजोरी का लाभ लेने के लिए खुलकर तुष्टीकरण की राह पकड़ चुकी है जिसके तहत उसने न सिर्फ सच्चर समिति व रंगनाथ मिश्र समिति जैसे तुष्टीकरण के पत्ते खेले वरन देश के संसाधनों पर मुस्लिमों के पहले हक़ का दावा भी कर डाला। यद्यपि कॉंग्रेस प्रारम्भ से ही तुष्टीकरण का राजनैतिक खेल खेलती आ रही है किन्तु संभवतः 2004 चुनावों से इसने सतत जिस स्तर को छुआ है वह राजनैतिक परिदृश्य का निम्नतम है। आंध्र प्रदेश से मुस्लिम आरक्षण की चिंगारी लगाने के बाद उत्तर प्रदेश के चुनावों से तुरन्त पहले इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करके कॉंग्रेस ने तुष्टीकरण के खेल का तुरुप का पत्ता चला है। मुलायम जैसे क्षेत्रीय नेताओं के मुस्लिमप्रेम की काट निकालने के लिए कॉंग्रेस ने जांच एजेंसियों के सहारे हिन्दू आतंकवाद का हौवा खड़ा करने का प्रयास भी किया जिसे जमीनी स्तर पर मुसलमानों के मन में डालने के लिए दिग्विजय सिंह जैसों को पार्टी का स्पीकर बनाया गया। दिग्विजय सिंह राजनीति के पुराने खिलाड़ी रहे हैं अतः मध्य प्रदेश से खाली हो जाने पर उन्हें उत्तर प्रदेश का कार्यभार देकर राहुल के साथ नियुक्त कर दिया गया। कॉंग्रेस की निर्धारित तुष्टीकरण की नीति के अनुसार राहुल गांधी भी दिग्विजय के निर्देशन में अब खुली मुस्लिम परस्ती की राह पर चल चुके हैं जिसके तहत किसी भी बात के लिए संघ पर निशाना साध लेना उनकी शैली बनता जा रहा है। अपने नवीनतम बयान में राहुल का यह कहना कि विभिन्न पदों पर बैठे संघ के लोग मुसलमानों के आगे बढ्ने में रोड़ा लगाते हैं, कॉंग्रेस की तुष्टीकरण की नीतियों को स्पष्ट रूप में परिभाषित करता है भले ही उनका यह बयान बचकाना हो। निश्चित रूप से राहुल को दिग्विजय की शैली में लाकर कॉंग्रेस एक बड़ी रिस्क ले रही है क्योंकि इस स्तर की राजनीति राहुल की छवि के लिए बिलकुल ठीक नहीं है जबकि वह पार्टी की ओर से भविष्य के प्रधानमंत्री पद के मुखौटे हों! इसे राहुल की व्यक्तिगत अपरिपक्वता अथवा दिशाहीनता भी कहा जा सकता है क्योंकि वे इस प्रकार के बयान पूर्व में अमेरिकी राजनायिक तक के सामने भी दे चुके हैं। किन्तु संभवतः काँग्रेस का अभी एकमात्र उद्देश्य उत्तर प्रदेश व मुस्लिम वोट बैंक को साधना ही है इसी कारण दिग्विजय आजमगढ़ जाकर आतंकवादियों का समर्थन भी करते नजर आते हैं, मूल शिक्षा में प्रोत्साहन के स्थान पर रूढ मदरसों को समर्थन व बेशुमार सहायता दी जाती है, बुनकरों के नाम पर चुनाव के ऐन मौके पर भरी भरकम पैकेज जारी होता है और राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पटल पर होने वाली आलोचनाओं व छवि हानि की उपेक्षा करते हुए कॉंग्रेस सरकार राजस्थान साहित्य उत्सव में रुश्दी पर रोक भी लगाती है। तुष्टीकरण की होड़ में सलमान खुर्शीद मुसलमानों के लिए 4.5% आरक्षण 8% करने का वादा करते हैं तो मुलायमपुत्र अखिलेश यादव मुसलमानों को आबादी के अनुपात में 18% आरक्षण देने की बकालत कर बैठते हैं यद्यपि यह बात और है कि तेजी से बढ़ रही मुस्लिम आबादी के लिए 18% प्रतिशत भी कुछ समय में कम पड़ जाएगा। सपा के आजम खाँ को 4.5% प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण भी मुसलमानों के साथ धोखा नजर आता है, उनका कहना है कि मुसलमानों के आरक्षण में हम किसी और अल्पसंख्यक समुदाय को लाभ नहीं लेने देंगे।
इन सबके बाद भी उत्तर प्रदेश का मुख्य मुक़ाबला सपा बसपा के बींच ही होने की संभावना है क्योंकि आजम खाँ की कट्टर छवि, जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना बुखारी के समर्थन व बाबरी विध्वंस के समय की अपनी पहचान पुनर्जीवित करने के साथ ही मुलायम मुसलमानों के पुनः अधिक विश्वासपात्र बन चुके हैं। कॉंग्रेस की लाख साफ़गोई के बाद भी उ.प्र का मुसलमान उसे बाबरी विध्वंस का दोषी मानता है, उल्टे मुस्लिमप्रेम में फंसे रहने के कारण वह पिछड़े वर्ग को अपनी ओर खींचने में असफल रही है, दलित आज भी उ.प्र में मायावती का ही थोक वोट बैंक है। अन्ना व रामदेव आंदोलन का भी कहीं न कहीं शिक्षित वर्ग में कॉंग्रेस को नुकसान उठाना ही पड़ेगा। भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर आज लाभ में होने के बाद भी उ.प्र के जातीय चक्रव्यूह को तोड़ पाने सफल होती नहीं दिख रही है। भाजपा की हिन्दुत्व के छत्र को उस दृढ़ता से उठाए रख पाने में असफलता ने सवर्ण व अन्य पिछड़ा वर्ग को जमीनी परिस्थितियों के अनुसार जातियों में बाँट दिया है, साथ ही भाजपा की लम्बे समय से सत्ता से दूरी व स्थानीय नेताओं की राजनीति हिन्दुओं को तुष्टीकरण की राजनीति व हिन्दू भावना विरोधी नेताओं की बयानबाजी के विरुद्ध एक होने से रोकती है अतः पिछड़ा वर्ग के हिस्से में अल्पसंख्यक आरक्षण का सीधा लाभ भाजपा को कितना मिल पाएगा, कहना कठिन है। कल्याण सिंह के जाने से जाने से भाजपा को किसान-लोध जैसे पिछड़े वर्ग के वोट के साथ-साथ हिन्दुत्व एजेंडा कमजोर पड़ने का जो सीधा नुकसान हुआ उसकी भरपाई अभी तक संभव नहीं हो पायी है भले ही कल्याण सिंह स्वयं राजनैतिक रूप से बड़े केन्द्र न बन पाएँ हों! उमा भारती के आने से कुछ भरपाई की आशा अवश्य की जा सकती है किन्तु भाजपा का अंतर्युद्ध उसे आगे नहीं बढ्ने देना चाहता।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के नारे को अपने झंडे में छपवाकर मुस्लिम-दलित-पिछड़ा गठजोड़ की उम्मीदों पर मैदान में उतरी पीस पार्टी के नेता भी जमीनी स्तर पर मुसलमानों के हमदर्द साबित होने के लिए तालिबानी भाषण देने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं किन्तु फिर भी दिग्विजय, मुलायम, आजम खाँ जैसे दिग्गजों के उपहारों-वादों के आगे पीस पार्टी कुछ खास चमक पाएगी, ऐसी अधिक संभावना नहीं लगती। पीस पार्टी की राजनैतिक संभावनाएं उसके प्रत्याशियों पर ही अधिक निर्भर हैं क्योंकि नयी पार्टी होने के नाते उसने बिना किसी द्वन्द के अपराधी से लेकर बाहुबली किसी को भी टिकट देने में संकोच नहीं किया।
इस बहुकोणीय चुनाव का परिणाम किसी के भी पक्ष में आए किन्तु जमीन पर जातियों में विखण्डित उ.प्र की चुनावी राजनीति नीतिगत रूप से आज मुस्लिम वोट बैंक की परिक्रमा में ही निरत है। दुर्भाग्य से कट्टरता के चोले में कैद अधिकांश मुस्लिम वर्ग भी मुख्यधारा से काटती राजनैतिक नीतियों, आश्वासनों व प्रलोभनों की बैशाखी को ही अपना हित समझ रहा है, यह भारतीय राजनीति के लिए शुभ संकेत बिलकुल नहीं है।
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-वासुदेव त्रिपाठी
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