- 68 Posts
- 1316 Comments
भारतीय राजनीति आरोप-प्रत्यारोप व दावों-वादों की एक कुख्यात परंपरा के रूप में जानी जाती है। उ.प्र के चुनावी समर के दो चरण दावों-वादों के जिन धरातलों पर लड़े गए हैं व शेष लड़े जाने हैं दुर्भाग्य से वे घोषणापत्र भी स्वयं में पूर्णतः अवास्तविक व दिशाहीन हैं, अर्थात हमारे राजनैतिक दल कहीं न कहीं उस सोंच से ही कहीं मीलों दूर हैं जिससे राज्य अथवा राष्ट्र का ठोस विकास संभव है। अधिकांश चुनावी घोषणापत्र वस्तुतः विकास के स्थान पर सुनहरे काल्पनिक सपनों का चित्र खींचते दिखते हैं। घोषणापत्रों का प्रारम्भ जिस प्रकार आंकड़ों तथ्यों के साथ-साथ जनता की स्मृति पर कालिख पोतने के साथ होता है संभवतः वह राजनैतिक दिशाहीनता की पराकाष्ठा को ही परिलक्षित करता है। समाजवादी पार्टी का घोषणापत्र मायावती सरकार को जंगलराज बताने के साथ ही प्रारम्भ होता है जबकि अपने तीन साल के शासनकाल में उनकी सरकार माफियाराज के उपनाम से जानी जाने लगी थी। सपा का घोषणापत्र कहता है कि अपने तीन वर्ष के शासनकाल में सपा ने विकास की गति को तेज करते हुए स्वच्छ व पारदर्शी सरकार को जनता के दरवाजे पर ले जाकर खड़ा कर दिया था, प्रश्न यह है कि फिर जनता ने उनकी पार्टी को जमीन पर लाकर क्यों पटक दिया? इसी तरह कॉंग्रेस का घोषणापत्र बसपा सरकार के 5000 करोड़ के एनएचआरएम घोटाले के जिक्र से शुरू होता है भले ही वह 2जी से लेकर आदर्श सोसाइटी जैसे घोटालो के कारण भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी हो। यह भारतीय राजनीति की दशकों पुरानी अपरिवर्तित शैली है।
सत्ता में होने के कारण बसपा मुख्यतः पाँच सालों के कामों की छवि को साफ़सुथरा करके प्रस्तुत करने के प्रयास में है जोकि मुफ्त साइकिल, लड़कियों को शिक्षा में 1,00,000 रु. के सहयोग जैसी बातों पर ही टिका है। इसके अतिरिक्त दलित स्वाभिमान के नाम पर स्मारकों पार्कों में खर्च हुए हजारों करोड़ को सही ठहराने का प्रयास बसपा द्वारा किया गया है जोकि अल्पशिक्षित दलित वर्ग के आकर्षण को बनाए रखने के लिए कारगर तरीका है। मायावती की निरंकुश जातिवादी राजनीति उनकी चुनावी घोषणाओं में भी वैसे ही झलकती है। सपा का घोषणापत्र तो विकास से अधिक बेरोजगारी भत्ता, लड़कियों को शिक्षा के नाम पर सीधे नकद रुपये देने व लड़कियों के विवाह के लिए धन देने जैसे व्यक्तिगत लालचों पर ही अधिक बात करता है। इसी कड़ी में मुलायम सिंह ने उन लड़कियों को नौकरी देने की घोषणा की थी उनकी सरकार में जिनका बलात्कार होगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी सपा मुफ्त शिक्षा, मुफ्त कपड़े, हर ब्लॉक में डिग्री कॉलेज, 5लाख से कम आय के परिवारों के बच्चों को मुफ्त उच्च शिक्षा जैसे सीधे लाभ के वादे ही करती दिखती है। कॉंग्रेस भी हर 2500 परिवारों पर एक इंटर कॉलेज, मुफ्त किताबें कपड़े व साथ में जूते भी तथा छात्रों के लिए मुफ्त आवास जैसी लगभग वैसी ही लुभावनी बातें करती है। चूंकि प्रदेश में शिक्षक एक बड़ा मतदाता समूह है अतः अपने-अपने स्तर से उसे भी लुभाने का भरकस प्रयास किया गया है। यद्यपि इन घोषणाओं को भी जनहितैषी ही कहा जा सकता है किन्तु इसमें निष्पक्ष व्यापक दृष्टिकोण का नितांत आभाव है। जिसप्रकार बड़े वर्ग को ललचाने के प्रयास में मुलायम 5लाख प्रतिवर्ष अर्थात 41.6हजार मासिक आय वालों को भी गरीब मानकर मुफ्त उच्च शिक्षा देने एवं NCERT के प्रावधानों की अनदेखी कर सभी शिक्षामित्रों को नियमित कर देने की बात कर रहे हैं वह पूर्णतः अवास्तविक व अव्यवहारिक है। शिक्षा सम्बन्धी घोषणाओं में भी सपा, बसपा, कॉंग्रेस तीनों ही अल्पसंख्यकवादी राजनीति से बाज नहीं आए हैं किन्तु दुर्भाग्य से इनके घोषणा पत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता व ढांचे तथा भटकती युवा पीढ़ी के लिए आदर्श शिक्षा जैसा कोई विचार तक नहीं है। भाजपा का घोषणापत्र इस दिशा में स्वामी विवेकानंद के शिक्षा आदर्शों की बात करने के साथ-साथ शिक्षा के समग्र चिंतन एवं सुधार के लिए शिक्षा आयोग के गठन, गुणवत्ता वृद्धि, पाठ्यक्रमों से राष्ट्रीय महापुरुषों के जाति संदर्भित असम्मान को समाप्त करने एवं लोकजागरण पाठ्यक्रम लागू करने जैसे आश्वासनों के द्वारा संतोष अवश्य देता है।
किसानों को लुभाने के लिए सस्ती खाद, सस्ता ऋण एवं ऋण माफी जैसे लुभावने वायदे ही किए गए हैं किन्तु इन्हे पूरा करने के लिए खस्ताहाल प्रदेश में आर्थिक स्रोत कहाँ से आएंगे इसपर चुप्पी सधी है। भाजपा ने रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को नियंत्रित कर जैविक खेती को प्रोत्साहन, गोरक्षा, पशुपालन-संवर्धन, जल संरक्षण एवं कृषि शिक्षा को प्रोत्साहन एवं विकास जैसे कुछ बिन्दु उठाए हैं जोकि मतदाताओं को सीधे भले ही न आकर्षित करते हों किन्तु समाज एवं राष्ट्रहित में अवश्य बहुपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। मुलायम सिंह गांवों में 20 व शहरी क्षेत्रों में 22 घंटे बिजली का वायदा कर रहे हैं यह बात और है कि अपनी पिछली सरकार में वे अपना 16घंटे बिजली का वायदा भी पूरा नहीं कर पाये थे। काँग्रेस व भाजपा सौर ऊर्जा जैसे अक्षय स्रोतों पर ध्यान देने की बात करके वायदों को कुछ आधार देने का प्रयास तो कर रहे हैं और दल केवल वायदे को ही पर्याप्त मानते दिख रहे हैं क्योंकि संभवतः तकनीक उनके विवेकक्षेत्र में अभी तक नहीं है, यद्यपि कॉंग्रेस का वादा केवल 8घंटे बिजली का ही है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य, रोजगार, उद्योग, सड़क व बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर भी बड़े बड़े दावे-वादे किए गए हैं किन्तु पुनः कंगाली की हालत में फंसा उ.प्र इतना बोझ कैसे झेल पाएगा इसकी कोई स्पष्ट व्यापक व्यवस्था भाजपा के अतिरिक्त, जोकि औद्योगिक विकास के बिन्दु के अंतर्गत इस भूमिका में बात करती है, अन्य घोषणापत्रों में नहीं मिलती क्योंकि शायद आम आदमी इतना नहीं सोच पाता है। सपा की अधिकतर औद्योगिक घोषणाएँ सीमित दायरे में सिमटी हैं जबकि कॉंग्रेस ने इसे मात्र 5-6बिन्दुओं में ही निपटा दिया है। भाजपा को छोडकर राजनैतिक पार्टियां सबसे अधिक व विस्तार से अपने घोषणापत्र में अल्पसंख्यक हितों के प्रति समर्पित दिख रही हैं और यह एक राजनैतिक विडम्बना ही है कि संविधान सम्मत अल्पसंख्यक शब्द को ताक पर रखकर अल्पसंख्यक शब्द से सीधे मुसलमानों को ही संबोधित किया गया है। मुसलमानों के लिए नौकरियों में आरक्षण से लेकर कब्रिस्तान तक के वायदे किए गए हैं, मुलायम सुरक्षाबलों में मुसलमानों के लिए आरक्षण का वायदा करते हैं तथा संवैधानिक न्याय प्रक्रिया को किनारे करते हुए आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद अभियुक्तों को निर्दोष मानते हुए सत्ता में आते ही रिहा करने का वायदा करते हैं, मदरसों के लिए विशेष अनुदान पर सभी की एकस्वर से सहमति है, भाषा के क्षेत्र में उर्दू के अधिकाधिक विकास का ही वायदा किया गया है जबकि भाजपा ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी पर अधिक ज़ोर दिया है व मदरसों को शिक्षा की मुख्य धारा में लाने की बात करती है। भाजपा ने मजहबी आरक्षण को समाप्त करने, राममंदिर निर्माण का संकल्प दोहरने व गाय गंगा की रक्षा की प्रतिबद्धता जताते हुए सद्भावनापूर्ण हिन्दुत्व पर गर्व को अपने घोषणापत्र में रखा है।
72 पन्नों का सबसे विस्तृत घोषणापत्र प्रस्तुत करके भाजपा ने एक सीमा तक व्यापक व प्रायोगिक चुनावी दृष्टिकोण उपस्थित करने का कुछ प्रयास किया है अन्यथा सभी घोषणापत्र व्यक्तिगत प्रलोभन पत्र ही परिलक्षित होते हैं। बालश्रम, बाल शोषण, वेश्यावृत्ति, असंस्कारित आपराधिक होती युवा पीढ़ी, आतंकवाद व बढ़ते माओवाद जैसे मुद्दे अछूते रह गए हैं क्योंकि वे शायद व्यक्तिगत अथवा सामुदायिक स्तर पर प्रलोभित नहीं करते। पर्यावरण पर शुरू हुई बहस को फैशन के रूप में प्रायः चंद पंक्तियों में उल्लेखित कर औपचारिकता पूर्ण की गयी है। महंगी अनावश्यक व घातक दवाइयों के नियंत्रण को स्वास्थ्य घोषणाओं मे स्थान नहीं मिल पाया है क्योंकि गंभीर होने के बाद भी ये अभी वोट खिंचाऊ मुद्दे नहीं बने हैं! विकास व जनहित की वोट आधारित प्राथमिकताएँ व परिभाषाएँ होना निराशाजनक है। चुनावी घोषणापत्र हमारे कल को भले ही चित्रित न करते हों किन्तु हमारी राजनीतिक मानसिकता व दिशा को अवश्य अभिव्यक्त करते हैं जोकि सतत एक खाईं की ओर बढ़ती प्रतीत हो रही है।
.
-वासुदेव त्रिपाठी
Read Comments