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ईरानी परमाणु का साया: भारतीय कूटनीति की अग्निपरिक्षा

RASHTRA BHAW
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Graphic1ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर वैश्विक गतिरोध के समय भारत में इजरायली राजदूत की कार पर हुये आतंकी हमले ने भारत के लिए पहले से चली आ रही असहजता को और भी बढ़ा दिया है। भारत जहां एक ओर अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए काफी हद तक ईरान पर निर्भर है वही दूसरी ओर निकट मित्र इज़राइल व पश्चिमी ताकतों के साथ सम्बन्धों की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। भारत अभी तक इस विषय पर उदासीन रहने के प्रयास में रहा है किन्तु हमें यह समझना होगा कि वैश्विक पटल पर उदासीन रहकर हम महाशक्ति नहीं बन सकते और न ही विभिन्न मुद्दों पर अपने राष्ट्रीय हितों के पक्ष में हस्तक्षेप की सामर्थ्य जुटा सकते हैं, हमें समय के साथ आत्मविश्वासपूर्ण व दूरदर्शी गतिशील नीतियाँ अपनानी होंगी। यदि हम विगत 50 वर्षों के अंतर्राष्ट्रीय इतिहास पर दृष्टि डालें तो अमेरिका इसका एक बड़ा उदाहरण है।
Embassy-car-attack-2-jpgईरान को लेकर नई दिल्ली को यह बखूबी समझना चाहिए कि राजनीति का वह पुरातन सूत्र अभी तक प्रासंगिक है कि यदि पड़ोसी अपना मित्र भी हो फिर भी उसका अत्यधिक सशक्त होना राज्यहित में नहीं होता। यद्यपि वर्तमान में भारत-ईरान सम्बन्ध अच्छे हैं किन्तु फिर भी ये सम्बन्ध मूलतः व्यापारिक ही हैं। हमें अपनी ईरान संबंधी किसी भी रणनीति को बनाते समय तीन प्रमुख बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए; भारत के वैश्विक हित व महत्वाकांक्षाएं, पश्चिमी देशों के साथ सम्बन्ध तथा एशियाई परिस्थितियाँ। एशिया क्षेत्र में चीन हमारा सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी भी है और खतरा भी तथा चीन किसी भी स्थिति में भारत को सशक्त होते अथवा बढ़त लेते नहीं देखना चाहेगा। चीन-ईरान सम्बन्धों की पृष्ठभूमि काफी पुरानी है, जब 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रान्ति के चलते अमेरिका समर्थित शाह को गद्दी से अपदस्थ होना पड़ा था तब साम्यवादी चीन ईरान की नई सरकार को सबसे पहले समर्थन देने वाले देशों में था। शीतयुद्ध के समय भारत-रूस गठजोड़ के जबाब में चीन ने ईरान के साथ जिन सम्बन्धों को मजबूत किया था उनसे आज तक चीन को ईरान में पैठ बनाए रखने में सहायता मिल रही है। चीन ईरान-इराक युद्ध के समय से ईरान को हथियार व तकनीक भी उपलब्ध कराता रहा है, यह उसकी अमेरिका से प्रतिद्वंदात्मक रणनीति का हिस्सा है। व्यापार के क्षेत्र में भी चीन ईरान के साथ 2011 में भारत के $12 billion की अपेक्षा $40 billion के वार्षिक व्यापार के साथ काफी आगे है। UN की ओर से आर्थिक प्रतिबन्धों को झेल रहे ईरान के लिए वीटो पावर रखने वाले चीन से काफी आशाएँ हो सकती हैं। ईरान के परमाणु कार्यक्रम में भी चीन व पाकिस्तान की सहायता की खबरें आती रही हैं अतः किसी भी स्थिति में ईरान का परमाणु हथियार सम्पन्न देश बनना भारत के हित में नहीं कहा जा सकता अर्थात इन परिस्थितियों में भारत ईरान के साथ दूरगामी हितों की लालसा नहीं रख सकता।।
चूंकि ईरान का सबसे बड़ा घोषित शत्रु इज़राइल है अतः ईरान मसले पर भारत के किसी भी रुख का सीधा असर भारत-इज़राइल सम्बन्धों के साथ साथ भारत अमेरिका सम्बन्धों पर भी पड़ेगा। एक ऐसे समय जब चीन अमेरिका के सम्बन्ध अन्दर ही अन्दर प्रतिस्पर्धी व तनावपूर्ण होते जा रहे हैं और चीन परोक्ष रूप से ही सही ईरान का साथ दे रहा है, भारत को खुलकर ईरानी परमाणु कार्यक्रम के विरोध में संकोच नहीं करना चाहिए। भारत-इज़राइल सम्बन्धों की घनिष्ठता व आवश्यकता को देखते हुये यह और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
नई दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ईरान के साथ सांस्कृतिक सम्बन्धों की दुहाई देकर अपने रुख का बचाव कर रही है, किन्तु इसे हित साधने तक ही सीमित रखना चाहिए। पर्सिअन ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक सांस्कृतिक सम्बन्ध एक सत्य हैं, बहुत कम लोग जानते हैं कि ईरान शब्द वस्तुतः “आर्य” शब्द की ही उत्पत्ति है। ईरान का पारसी इतिहास वैदिक धर्म की एक शाखा थी, प्राचीन ईरान में दरीउस की बेहिसतून में पारसियों के लिए वेदों की भांति आर्य शब्द प्रयोग किया गया है। पारसियों का पवित्र ग्रंथ अवेस्ता वैदिक पद्धतियों का प्रत्यक्ष अनुसरण करता है। किन्तु यह इतिहास 637 CE तक का ही है जब तक ईरान इस्लामी आक्रमणों से सुरक्षित था। आज का ईरान इस्लामी उम्मह का हिस्सा है और और वैश्विक पटल पर इस्लामी राजनीति इसे काफी हद तक प्रभावित करती है। इस्लामिक देश ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कॉन्फ्रेंस (OIC) की छतरी के नीचे एकजुट होते हैं तथा सामूहिक नीतियाँ निर्धारित की जाती हैं। इस्लामिक गुटबंदी के नीचे ही OIC कश्मीर मामले पर पाकिस्तान के पक्ष में प्रस्ताव पारित करती है तथा प्रत्येक इस्लामिक देश कश्मीर को दारुल-इस्लाम का हिस्सा मानते हुए भारत के विपरीत खड़ा होता है। ईरान भी लगातार कश्मीर मुद्दे पर भारत से संतुलित सम्बन्धों के बाद भी पाकिस्तान का साथ देते हुए भारत का विरोध करता रहा है। 1965 व 1971 के भारत-पाक युद्धों में ईरान ने पाकिस्तान को बेझिझक सैन्य सहायता उपलब्ध कराई थी। इस्लामी उम्मह के इस गठजोड़ को दो ताक़तें ही तोड़ती है, एक सुन्नी-शिया का कभी न सुलझने वाला झगड़ा और दूसरा अमेरिका! भारत अभी ऐसी सामर्थ्य नहीं रखता है। 1979 की इस्लामिक क्रान्ति के बाद ईरान की अयातुल्लाह सरकार के साथ पाकिस्तान के सम्बन्ध अमेरिका का साथ देने के कारण अवश्य बिगड़े थे लेकिन शीघ्र ही सम्बन्ध पुनः सुधर गए क्योंकि पाकिस्तान की जनता व अल्लामा इकबाल जैसे लोग इस्लामी क्रान्ति के साथ ही थे, आज अफगानिस्तान पर पाकिस्तानी रुख उन हालातो से बहुत मिलता है। आज सुन्नी अरब जगत शिया ईरान के परमाणु कार्यक्रम के प्रबल विरोध में है और अमेरिका के साथ लामबंद है। सऊदी अरब में अमेरिका पहले से ही अपना हस्तक्षेप बनाए हुए है। यह शायद पहला ऐसा मौका है जब इज़राइल और सऊदी अरब दोनों किसी मुद्दे पर एकजुट है। यदि ईरान परमाणु हथियार बनाने में सफल होता है तो यह इज़राइल के लिए बड़ा खतरा साबित होगा जोकि भारत के लिए घातक है, साथ ही सुन्नी अरब देशों में भी परमाणु हथियार की होड़ लगेगी जिसमें पाकिस्तान हथियार व परमाणु तकनीक निर्यात का केन्द्र बनकर उभरेगा। इससे पाकिस्तान की न केवल आर्थिक, सामरिक व वैश्विक प्रतिष्ठा बढ़ेगी वरन् पाकिस्तानी सेना, ISI व कट्टरपंथी भी मजबूत होंगे। पाकिस्तानी कट्टरपंथियों व आतंकवादियों का अरब देशों से गहरा सम्बन्ध है, आतंक के आर्थिक स्रोत इन्हीं देशों में स्थित हैं। ये भारत के लिए एक भयावह स्थिति होगी। हमारे नीतिनियंताओं को भविष्य की इन आशंकाओं को गंभीरता से लेना होगा। अभी तक की रणनीतियों से नई दिल्ली न ईरान को ही संतुष्ट कर सकी है और न ही पश्चिमी देशों को! 2005 में IAEA में ईरान के खिलाफ वोट देना और बाद में असमंजसपूर्ण रणनीति प्रदर्शित करना रणनीतिकारों की इसी अनिश्चितता को स्पष्ट करता है। एक अमेरीकन लाबिस्ट स्टीफन राडेमेकर ने अपने एक बयान में कहा भी था कि भारत ने दबाब में ईरान के खिलाफ वोट डाला था। हम दोनों पक्षों पर दबाब बनाने के मौकों पर भी दोनों पक्षों की ओर से दबाब में आ जाते हैं। ईरान से गैस-तेल की यदि हमारी जरूरतें जुड़ी हैं तो यह ईरान की भी व्यापारिक विवशता है, आवश्यकता है हमें मजबूत राष्ट्र के रूप में अपनी आवश्यकताओं को दूसरे देश की मजबूरियों के रूप पूरा करवाने की जिसके लिए हमें अपनी इन लचर नीतियों से बाहर निकलकर हमें सशक्त, समयानुसार परिवर्तनशील, दूरदर्शी व गतिशील विदेशनीतियाँ अपनानी होंगी, तभी हम एक वैश्विक महाशक्ति बनकर उभर सकते हैं।
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-वासुदेव त्रिपाठी

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