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कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र पर उठे विरोध के स्वर जैसे-जैसे तीव्र होते गए विरोध के स्रोत व मौलिकता पर प्रश्न चिन्ह भी साथ साथ गहराते जा रहे हैं। यह संभवतः पहला अवसर है जब हमारे प्रधानमंत्री ने इसके पीछे अमेरिकी संस्थाओं का हाथ बताते हुए अमेरिका की ओर उंगली उठाने का साहस किया है जोकि भारत में NGOs को मोहरा बनाकर कुडनकुलम परमाणु कार्यक्रम के विरोध को हवा दे रहा हैं, फिर भले ही इसे रूस के साथ किए गए सरकारी समझौतों का दबाब ही क्यों न कहा जाए। भारत विश्व पटल पर अध्रुवीय राजनीति करता रहा है किन्तु अब तक हम किसी भी राष्ट्र को पूर्ण विश्वासपात्र मित्र बनाने में सफल हो पाये हैं, ऐसा कहना कठिन है। वैश्विक पटल पर देशों को तीन श्रेणियों में रखकर देखा जाता है, विकसित, विकासशील और अविकसित। वैश्विक राजनीति के दांव-पेंचों में ये तीन विभाजन अत्यंत हस्तक्षेप रखते हैं। अमेरिका जैसे विकसित देश की $15,065 billion की भारी भरकम अर्थव्यवस्था में 51% भागीदारी वहाँ की कंपनियाँ रखती हैं वहीं ब्रिटेन में 66% व फ़्रांस में 72% अर्थव्यवस्था कंपनियों के हाथ में है। किन्तु व्यापार के बलबूते आसमान छूती पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएँ यूं ही इतनी सुदृढ़ नहीं हैं, इन देशों की समृद्धि का मूल्य विकासशील देश लगातार चुकाते रहे हैं। विश्व बैंक व आईएमएफ़ की जटिल उलझनों से लेकर संयुक्त राष्ट्र में दादागिरी तक हर जगह गरीब देशों को घुटने टेकने पड़ते हैं। अंतर्राष्ट्रीय नियमों अनुबन्धों व प्रतिबंधों तक की सारी व्यवस्थाएं कहीं न कहीं विकसित देशों के व्यापारिक हितों के पड़ाव ही हैं। यही कारण है भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्था की हैसियत अमेरिका का डॉलर तय करता है, कौन देश क्या हथियार बना सकता है और क्या नहीं संयुक्त राष्ट्र की आड़ में अमेरिका निर्धारित करता है और भारत ईरान से व्यापार करे अथवा नहीं अमेरिका ही बताता है। अमेरिका सहित लगभग सभी समर्थ देश मित्रता के दंभ के बाबजूद भारत के हितों में सेंधमारी करने में संकोच नहीं करते।
पश्चिमी देश युद्ध भी अपनी अर्थव्यवस्था के लिए ही लड़ते हैं और इसके लिए उनके पास पूर्वनिर्धारित मॉडल सुनिश्चित होते हैं। इन षडयंत्रों की सफलता के लिए भारत जैसे देशों के नीति निर्धारण में घुसपैठ व हस्तक्षेप नितान्त आवश्यक है जिसे साधने के लिए दो प्रकार के लोग प्रयोग किए जाते हैं, एक तो पश्चिमी चमक-दमक व संस्कृति के मानसिक गुलाम व दूसरे पैसे की ताकत से खरीदे गए लोग! भारत के कुडनकुलम परमाणु संयंत्र मामले में विरोध को हवा देने वाले लोग इसी लॉबी का हिस्सा हैं जोकि अमेरिका व उसके पिछलग्गू देशों के पैसे पर पर्यावरण व स्थानीय लोगों की चिन्ता का झण्डा बुलंद किए हैं। इस मामले में तमिलनाडु स्थित प्रभावशाली चर्चों का नाम भी निकालकर आया। यद्यपि चर्च ने इस साजिश में अपनी संलिप्तता से इन्कार किया था किन्तु कुछ समय बाद वेटिकन से यहाँ की चर्चों के लिए निर्देश आया कि वे इस मामले से अपनी दूरी बनाकर रखें। प्रश्न यह उठता है कि भारतीय जमीन पर धर्म के झण्डे तले काम करनी वाली संस्थाएं राष्ट्रीय महत्व के इतने बड़े विषय पर वेटिकन से निर्देश लेती है?
विदेशी एजेन्टों की यह विशालकाय फौज भारत में मीडिया से लेकर राजनीति तक हस्तक्षेप रखती है और वाल मार्ट से लेकर विदेशी एयरलाइन्स तक के लिए मार्ग खोलने के लिए हर पटल पर नए-नए अजीबोगरीब आंकड़ों व तर्कों के साथ वकालत करती है जिसे आज की भाषा में लॉबिंग व Public Relation Management जैसे शब्दों से परिभाषित किया जाता है। राष्ट्रीय हितों व राष्ट्रीय सुरक्षा की दलाली करने वाली ये संस्थाएं ही आज समाजसेवी संस्थाओं अथवा NGOs के नाम पर अमरवेल की भांति फैल रही हैं।
गत 14 मार्च को राज्यसभा में सरकार की ओर से दिये गए प्रतिउत्तर के अनुसार 2007-2010 के बींच विदेशों से 31,000 करोड़ की मोटी रकम भारतीय NGOs को दी गयी। 2009-10 में 3,105 करोड़ रुपए केवल अमेरिका से NGOs के लिए भारत आए। इसके अतिरिक्त 1,046 करोड़ जर्मनी ने, 1,038 करोड़ ब्रिटेन ने भारत में काम कर रहे विभिन्न NGOs को दिये। ऐसी ही एक लंबी अधिकृत सूची है, अनाधिकृत तरीकों से आने वाले धन का अनुमान लगाना भी कठिन है फिर चाहे वह पश्चिमी देशों से उनके व्यापारिक-सामरिक हित साधने के लिए की जाने वाली धनापूर्ति हो या धर्मांतरण के लिए पश्चिम से व वहाबी विचारधारा के प्रसार के लिए अरब देशों से आने वाली अकूत धनराशि। लगभग आर्थिक दीवालियेपन की स्थिति में खड़े अफगानिस्तान, पाकिस्तान व बांग्लादेश जैसे देश भी 2009-10 में अधिकृत मार्गों से इस देश के NGOs को क्रमशः 1.9 करोड़, 1.2 करोड़ व 86 लाख रुपये सहायता में देते हैं। क्या धन के इस अनियंत्रित प्रवाह को भारत व भारतवासियों की निष्काम सेवा मान लिया जाए?
कुडनकुलम के नाम पर भले ही सरकार की नींद अब जाकर खुली हो व कुछ NGOs पर कार्यवाही करते हुए उनकी मान्यता रद्द करने की दिशा में कदम उठाए गए हों किन्तु एक सजग सुदृढ़ नियंत्रण व्यवस्था के बिना यह सब सार्थक नहीं होने वाला। नाम और मुखौटे बदलकर राष्ट्रीय हितों की दलाली जारी रहेगी और हमारे तंत्र के साथ-साथ देश की जनता यूं ही ठगी जाती रहेगी। NGOs की यह उलझी हुई विषवेल सेवा के नाम पर विदेशों के साथ-साथ देश के सरकारी पैसे को भी चूसने में सतत लगी हुई है। इस विषय को सरकार के साथ-साथ देश की जनता को भी जागरूकता के साथ समझने की आवश्यकता है क्योंकि सेवा के नाम पर आने वाली यह वैध-अवैध धनराशि केवल कॉर्पोरेट लॉबिंग में ही खर्च नहीं होती वरन धर्मांतरण, माओवाद-नक्सलवाद व आतंकवाद को भी पालती-पोषती है। NGOs की यह जमात कभी कृषि में विदेशी हस्तक्षेप की वकालत के साथ अमेरिका जैसे देशों की नीतियों को आँख मूँद कर देश पर लदवाने का प्रयास करती है तो कभी सेना के खिलाफ कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों तक यात्रा निकलती है। पचासों दंतेवाड़ा पर आंखे मूँदे ये समाजसेवी नक्सलियों के मानवाधिकारों से लेकर अफजल गुरु के लिए न्याय तक की ज़िम्मेदारी विदेशी पैसों की दम पर अपने सर लिए हैं। यह NGOs का मायाजाल ही है जिसने समलैंगिकता व लिवइन रिलेशनशिप जैसे विषयों को इस देश में जबरन बहस का विषय बनाया व सुनिर्धारित नीतियों के अंतर्गत इसे प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। ऐसे में यदि राष्ट्रीय हितों के इन दलालों पर कठोर कानूनी रोक नहीं लगाई गई तो आम आदमी की जीविका सुरक्षा से लेकर देश की संस्कृति व सुरक्षा तक दांव पर है। देखना है निरावृत हो चुके इन षडयंत्रों पर हमारे नीति-नियंता कितना शीघ्र आँखें खोलते हैं।
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-“वासुदेव त्रिपाठी”
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