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ज़रदारी की खातिरदारी का औचित्य

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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COMING TOO CLOSE..!!

COMING TOO CLOSE..!!
पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ आली जरदारी की अजमेर शरीफ के लिए की गई भारत यात्रा भले ही उनकी व्यक्तिगत यात्रा रही हो किन्तु जिस तरह से भारत सरकार ने उनकी खातिरदारी की उससे कम से कम यही लगा कि इस एक दिन में भारत-पाकिस्तान के कई विवाद हल होने वाले हैं। इसे भारतीयों की कुछ पीढ़ियों का आनुवांशिक दोष ही कहना चाहिए कि विश्वास बहाली को लेकर वे आवश्यकता से अधिक आशान्वित व सकारात्मक हो जाते हैं। सरकार के साथ-साथ मीडिया व वर्तमान बुद्धिजीवियों के इस विषय पर विश्लेषण, निष्कर्ष व व्याख्याएँ निश्चित रूप से निराश करने वाली रहीं।
पाकिस्तान जैसे किसी देश पर विश्वास करने व कोई सकारात्मक परिणाम की आशा रखने से पहले अतीत के पन्नों व वर्तमान के यथार्थ को दरकिनार नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान के साथ भारत का अतीत जहां विश्वासघातों से भरा व रक्तरंजित है वहीं वर्तमान में पाकिस्तान की स्थिति उस मुल्क की है जो अपनी ही लगाई आग में बुरी तरह फंस चुका है। पाकिस्तान का जन्म ही वैमनष्य की उस अवधारणा पर हुआ था जो पारस्परिक सौहार्द व सहयोग की कल्पना नहीं करती, दुर्भाग्य से वैमनष्य व शत्रुता की इस दुर्भावना को वहाँ के नेताओं व मुल्लाओं द्वारा निरन्तर कट्टरपंथ के खाद-पानी से सींचा गया व भारत विरोध को पाकिस्तान की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया। 1947 के दंगों से लेकर 1965, 1971 व 1999 तक के युद्ध तथा कश्मीर से लेकर 26/11 मुम्बई हमलों तक पूरे भारत की छाती पर खेले जाने वाले आतंकवाद के खूनी खेल पाकिस्तान के इसी वैचारिक दानव की करतूतें हैं। इसे अतीत कहकर भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि पाकिस्तान आज भी उसी रास्ते पर ही चल रहा है जहां वह पहले था तथा भारत आज तक हाफिज़ सईद पर 26/11 मामल में कार्यवाही को पाकिस्तान को तैयार नहीं कर पाया है। अजमेर यात्रा से पहले पाकिस्तान में जरदारी चेतावनी भरे लहजे में भारत को बता देते हैं कि वार्ता के किसी बिन्दु पर हाफिज़ सईद नहीं होगा बाबजूद इसके कि इस समय पाकिस्तान अमेरिका द्वारा सईद पर इनाम रखे जाने के कारण दबाब में था। जरदारी अपनी शर्तों पर वार्ता की औपचारिकता पूरी कर जाते हैं, मनमोहन सिंह यदि आतंकवादियों पर कार्यवाही की बात उठाते हैं हैं तो जरदारी कश्मीर व सियाचिन का सुर छेंड़ देते हैं और हमारी सरकार व मीडिया इसे “शान्ति की दिशा में एक कदम” बताकर अपना मुंह पोंछ लेती है। जो मनमोहन सिंह विदेशी धरती पर गिलानी को “शांतिदूत” का सर्टिफिकेट दे सकते हैं उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं कही जानी चाहिए!
यद्यपि विश्वास करना कठिन है कि पाकिस्तान की जमीनी सच्चाईयों को जानने के बाद भी हमारे नीति-नियंता विश्वास बहाली जैसी बातों को औपचारिकता के स्थान पर वास्तविक गंभीरता से लेते होंगे किन्तु जिस तरह से सरकार की ओर से जरदारी के लिए पलकें बिछाई गईं उससे सरकार की दूरदर्शिता पर संदेह अवश्य होता है। एक ऐसे समय पर जबकि पूरे विश्व में पाकिस्तान आतंकवादियों की पनाहगाह के रूप में बदनाम हो चुका है जिसका लाभ लेते हुए भारत को आतंकवाद के मुद्दे दृढ़तापूर्वक दबाब बनाना चाहिए यदि भारत सरकार उस देश के राष्ट्रपति की व्यक्तिगत यात्रा पर बेसब्री से दंडवत नजर आती है तो इसे नीतिगत महान असफलता के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है?
पाकिस्तान के साथ किसी भी कदम को बढ़ाने से पहले यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान की सत्ता व शक्ति का संप्रभुत्व वहाँ की सरकार सीधे नहीं रखती है जैसा कि भारत के साथ है, इसके विपरीत पाकिस्तान में सरकार से अधिक सेना व आईएसआई महत्व रखते हैं जोकि भारत विरोधी विचारधारा की नर्सरी हैं। यद्यपि अब तक की पाकिस्तानी सरकारें भी भारत के प्रति मित्रतापूर्ण सोंच रखने वाली कदापि नहीं रहीं हैं क्योंकि जिस तरह की मानसिकता पाकिस्तान में पलती है उसके चलते ऐसा संभव भी नहीं तथापि यदि कोई सरकार विवाद सुलझाने की दिशा में गंभीर भी हो तो भी सेना व आईएसआई के प्रभाव के रहते ऐसे प्रयास स्थिर नहीं रह सकते। वर्तमान में अमेरिका और पाकिस्तान के संबंध इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं। 9/11 के हमले के बाद से अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में अपने अभियान के लिए पाकिस्तान के अत्यंत निकट है, परवेज़ मुशर्रफ की निकटताओं के चलते अमेरिका को पाकिस्तान में पैर जमाने का भरपूर अवसर मिला क्योंकि उस समय पाकिस्तान में सत्ता व सेना की लगाम एक ही हाथ में थी। उसके बाद पाकिस्तान के लिए अमेरिका मजबूरी भी बन गया और गले की फांस भी! 2001 से 2011 के बींच पाकिस्तान अमेरिका से लगभग 20 बिलियन डॉलर की मदद ले चुका है। पाकिस्तान आर्थिक कंगाली व कट्टरपंथ के दो पाटों के बींच फंस चुका है जहां से निकलना उसके बस के बाहर होता जा रहा है। कुआं-खाईं की स्थिति में फंसे पाकिस्तान को आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में अमेरिका के सबसे निकटस्थ साथी होने का दाबा इन्हीं मजबूरियों के चलते करना पड़ता रहा है किन्तु इसके बाद भी पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन शरण लेकर सेना कि छत्रछाया में रहता है और अमेरिका को उसे ढूंढने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते हैं। ओसामा के मारे जाने के बाद पूरा पाकिस्तान अमेरिका के विरुद्ध उबल पड़ता है और पाकिस्तानी सरकार सहमी हुई नजर आती है जिसके बाद से आज तक अमेरिका के साथ पाकिस्तान के रिश्ते दिन प्रति दिन बिगड़ते ही जा रहे हैं जबकि पाकिस्तान सरकार ऐसा बिलकुल भी नहीं चाहती। ऐसा इसलिए क्योंकि अपनी विवशताओं के बाबजूद पाकिस्तान का जनमानस अभी तक अमेरिका का साथ अथवा ओसामा या हाफिज़ सईद जैसे आतंकवादियों का विरोध स्वीकार नहीं कर पा रहा है। ठीक यही स्थिति भारत के साथ भी है, जरदारी वहाँ से व्यक्तिगत यात्रा के नाम पर भारत के लिए निकलते हैं और भारत सरकार उनकी मेहमान-नवाजी के लिए पलकें बिछा देती हैं किन्तु पाकिस्तान में इस यात्रा की जबरदस्त आलोचना व विरोध ही होता है। जब तक पाकिस्तान का मानस व विचारधारा ईमानदारी के साथ शान्ति की कल्पना को स्वीकार नहीं करता तब तक शान्ति के कसीदे काढ़ना भारत को रणनीतिक तौर पर कमजोर ही करेगा न कि इससे कोई वास्तविक सकारात्मक परिणाम निकलने वाला है।
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-वासुदेव त्रिपाठी

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