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गाँधी की अहिंसा व भगत सिंह की फांसी

RASHTRA BHAW
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यह लेख पिछले लेख “गाँधी जी: राष्ट्रपिता या राष्ट्रपुत्र “ पर पूछे गए एक प्रश्न के समाधान का मेरा संक्षिप्त प्रयास है क्योंकि मैं अब तक इतिहास का छात्र नहीं विज्ञान का छात्र रहा हूँ। इस प्रतिक्रियात्मक लेख का उद्देश्य ऐतिहासिक घटनाक्रमों का विश्लेषण करते हुए गांधीजी को उनके संघर्षों के लिए योग्य सम्मान देने के साथ-साथ दूसरे पक्ष पर दृष्टि डालना है जिसकी अनभिज्ञता मे हम कई बार अन्य क्रांतिकारियों के योगदान को या तो उपेक्षित कर जाते हैं अथवा उनका श्रेय किसी और को दे बैठते हैं।
जहां तक गांधी जी के सरदार भगत सिंह की फांसी के विषय पर रुख का प्रश्न है यह विषय इतिहास मे निश्चित रूप से मतभेद रखता है, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि गांधीजी ने अपनी ओर से भगत सिंह व साथियों को बचाने के लिए पूर्ण प्रयास किया किन्तु कुछ का विचार इससे पूर्णतः विपरीत है। इस विषय को इतिहास मे खँगालने के लिए हमे गांधी-इरविन समझौते से ही शुरुआत नहीं करनी चाहिए जैसा कि कुछ लोग करते हैं बल्कि कुछ पहले की घटनाओं तक पहुंचना आवश्यक है। गांधी जी ने भगत सिंह को बचाने के लिए लॉर्ड इरविन से बातचीत की इसके प्रमाण हैं, किन्तु गांधी जी द्वारा भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को आतंकवादी व पथभ्रमित कहना भी छिपा नहीं है। गांधीजी के सबसे करीबी नेहरू अँग्रेजी भाषा व सभ्यता में अधिक श्रद्धा रखने के कारण इन क्रांतिकारियों को फ़ासिस्ट (फासीवादी) कहते थे। भगत सिंह की फांसी का आदेश होने से पूर्व ही गांधीजी ने भगत सिंह का पक्ष लिया हो ऐसा बिलकुल नहीं है। बाद मे गांधी जी ने इरविन के साथ जो पत्राचार किया उसके पीछे गांधी जी की पूर्ण निष्ठा थी ऐसा स्वीकार करने के लिए किन्हीं अंग्रेज़ अधिकारियों की टिपपड़ी मात्र आधार नहीं हो सकती क्योंकि अपमानपूर्ण बाते बोलना अंग्रेजों की आदत थी। अवज्ञा आंदोलन के समय अङ्ग्रेजी स्टेट्समेन अखबार ने कहा था जब तक डोमिनियन स्टेट्स नहीं मिल जाता गांधी समुद्र का पानी उबाल सकते हैं
यह स्वाभाविक है कि जो गांधी जी भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को उग्रवादी आतंकवादी व भटका हुआ कहते थे उनकी उन क्रांतिकारियों के प्रति विशेष श्रद्धा नहीं थी। THE TRAIL OF BHAGAT SINGH पुस्तक के लेखक ए जी नूरानी का विस्तृत विश्लेषण के बाद निष्कर्ष है गांधी जी के भगत सिंह की सजा माफी के पक्ष में किए गए प्रयास आधे दिल से थे। गांधीजी ने इरविन से भगत सिंह की सजा कम किए जाने की वकालत की अथवा माफी की, यह भी स्पष्ट नहीं है किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि गांधीजी ने जो भी चिट्ठियाँ लिखी वे तब लिखीं जब पूरे देश मे भगत सिंह के पक्ष में क्रान्ति की लहर दौड़ चुकी थी तथा गांधी एवं कॉंग्रेस पर, चूंकि अंग्रेजों से समझौतों की चाभी इन्हीं के हाथ मे रहती थी, भगत सिंह की फांसी माफी को लेकर भारी दबाब था। अतः उन कथित उग्रवादियों के लिए प्रयास तभी शुरू हुए। ब्रिटिश गवर्नमेंट की confidential intelligence bureau रिपोर्ट (1917-1936) भगत सिंह की उस समय की लोकप्रियता के विषय मे कहती है कि उस समय भगत सिंह ने गांधीजी को मुख्य राजनैतिक किरदार की भूमिका से बाहर कर दिया था। इससे भगत सिंह के लिए देश मे उमड़े समर्थन एवं काँग्रेस व गांधी जी पर, जिन्होंने इरविन समझौता उसी समय किया था, जनता के भारी दबाब का अनुमान लगाया जा सकता है। इतिहासकारों के अपने अपने विवेचन हैं किन्तु मेरा सीधा प्रश्न यह है कि यदि गांधीजी जनता की भावनाओं के उबाल की कद्र करते हुए वास्तव मे पूर्ण हृदय से भगत सिंह को बचाना चाहते थे तो ठीक 18 दिन पहले इरविन समझौता क्यों कर लिया? परिस्थितियो का हवाला देने वालों को बताना चाहिए कि वे कौन सी परिस्थियाँ थीं जो करोड़ों लोगों कि भावनाओं से अधिक कीमती थीं? गांधी-इरविन समझौता क्या देश को स्वतन्त्रता दे रहा था जिसकी कोई भी कीमत जायज थी? बात-बात पर अनशन करके अपनी बात मनवाने वाले गांधीजी को इस विषय पर अनशन की आवश्यकता क्यों नहीं लगी? जब भगत सिंह जेल मे आमरण अनशन कर रहे थे तब गांधीजी उनसे एक बार भी मिलने भी नहीं जा सके?? इन सच्चाईयों को नकारा जाना वैसे ही कठिन है जैसे कि खिलाफत आंदोलन का समर्थन करना, सरदार पटेल के सामने बुरी तरह हारने के बाद भी नेहरू की जिद पर नेहरू प्रधानमंत्री बनाने का पक्ष लेना, विभाजन को स्वीकार करना आदि-आदि भूलों को नकारा जाना!! हम सभी जानते हैं कि गांधीजी के आगे नेहरू का कोई कद न देश मे था और न कॉंग्रेस मे ही, जहां उन्हें तगड़ी हार मिली थी किन्तु गांधी जी द्वारा नेहरू को बिगड़े बच्चे कि तरह शह देना निश्चित रूप से घातक था उसके पीछे अब कारण ढूंढने से बहुत लाभ नहीं होने वाला! गांधी जी एक महान व्यक्तित्व अवश्य थे किन्तु महान व्यक्ति की महानताओं के पर्दे में महान भूलों को नहीं छुपाया जाना चाहिए क्योंकि इतिहास का उद्देश्य महानताओं से पूर्व भूलों को समझने व उनसे सीखने का है क्योंकि इतिहास स्वयं को पुनः दोहराता है।
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-वासुदेव त्रिपाठी

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