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राष्ट्रपति की नूराकुश्ती में चर्च का दांव

RASHTRA BHAW
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Graphic2फ्रांस अमेरिका रूस व भारत इन चार बड़े देशों में राष्ट्रपति चुनाव लगभग आगे पीछे ही सम्पन्न हुए अथवा होने को हैं। भारत में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जिस तरह की नूरा-कुश्ती मची है वह अपने आप में यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है भारतीय लोकतन्त्र राष्ट्रीय हितों को लेकर किस ओर गतिशील है!
राष्ट्रपति चुनाव का मौसम आते ही पार्टीबंदी और सौदेबाजी का पेंचीदा खेल प्रारम्भ हो गया था। कॉंग्रेस किसी भी स्थिति में अपने प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनाना चाहती है क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार आगामी लोकसभा चुनावों में कॉंग्रेस की सत्ता से छुट्टी तय है। कॉंग्रेस विपक्ष में बैठने के लिए अवश्य चाहेगी कि कम से कम राष्ट्रपति आगे भी 10 जनपथ के निर्देशों को पूरी तरह समझने वाला हो। इसके लिए कॉंग्रेस की ओर से प्रणव मुखर्जी का नाम आया क्योंकि वे कॉंग्रेस और 10 जनपथ की अपेक्षाओं के पूर्णतयः अनुकूल हैं। गठबंधन की अनिश्चित व अवसरवादी राजनीति में क्षेत्रीय दल कोंग्रेसी उम्मीदवार स्वीकारना नहीं चाहते। ऐसे में यह और भी प्रासंगिक हो जाता है कि क्षेत्रीय दल दलित पिछड़ा मुस्लिम ईसाई आदि का राग छेड़ें और ऐसा हो भी रहा है। सबसे पहले शरद पवार ने अराजनैतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाए जाने की बात उठाई थी उसके पीछे प्रणव मुखर्जी जैसे कोंग्रेसी की राह में रोड़ा अटकाना ही मुख्य कारण हो सकता है। मुस्लिम राष्ट्रपति की मांग के बींच रोचक यह है कि मुस्लिम राजनीति के प्रयास में लगी कॉंग्रेस मुस्लिम राष्ट्रपति के दांव पर बुरी तरह उलझ गई है और अपने विश्वासपात्र को राष्ट्रपति बनाने की उसकी योजना खटाई में पड़ती दिख रही है।
राजनीति के इन बनते बिगड़ते समीकरणों व दांव-पेंचों के बींच से जो बात सामने निकलकर आती है वह यह कि देश का लोकतन्त्र तेजी से मुस्लिम ईसाई राजनीति के आगे दंडवत हो रहा है और इसका लाभ उठाकर देश के अन्दर और बाहर की मुस्लिम-ईसाईवादी शक्तियाँ देश की व्यवस्था में हस्तक्षेप बनाने के प्रयासों में तेजी से सक्रिय हो उठी हैं। कई मुस्लिम संगठनों ने मुस्लिम राष्ट्रपति की मांग उठाई और लालू यादव ने हामिद अंसारी को मुस्लिम होने के कारण राष्ट्रपति के लिए समर्थन की घोषणा की। कई राजनैतिक दल अपने-अपने प्रत्याशियों को आगे करने की मंशा पाले बैठे थे लेकिन हामिद अंसारी के आगे लगे मुस्लिम ठप्पे के कारण किसी ने भी सार्वजनिक रूप से उनके विरोध की हिम्मत नहीं जुटा पाई। भाजपा ने खुले रूप से हामिद अंसारी की प्रत्याशिता को नकारा तो राजग के ही मुख्य सहयोगी शरद यादव भड़क गए। चूंकि मुस्लिम प्रत्याशी के रूप में उपराष्ट्रपति होने के कारण हामिद अंसारी सबसे सशक्त दावेदार हैं अतः राजनैतिक दलों को इसकी काट केवल दलित-आदिवासी प्रत्याशी के रूप में ही मिल सकती थी, हाँलाकि मुस्लिम इससे संतुष्ट नहीं हो सकता। मीरा कुमार का नाम दलित आधार पर बेहतर विकल्प था अतः वे भी दौड़ में आगे बढ़ती दिख रही हैं। दलित मुस्लिम के दांव पेंच में एक उलझन तब और आ गई जब ईसाइयों की संस्था “ग्लोबल काउंसिल ऑफ इंडियन क्रिश्चियन्स” व “काउंसिल ऑफ चर्चेज़” ने ईसाई राष्ट्रपति की मांग उठाते हुए सभी दलों को पत्र भेज डाले। वोट बैंक की दृष्टि से मुसलमान भले ही अधिक महत्वपूर्ण हों किन्तु पारिभाषिक आधार पर तो ईसाई भी अल्पसंख्यक ही हैं। दक्षिण व पूर्वोत्तर में तेजी से किए गए धर्मांतरण के कारण ईसाई वोट बैंक भी काफी निर्णायक हो चुका है साथ ही यह भी स्पष्ट है कि भारत में ईसाइयों के पीछे पश्चिमी देशों व वैटिकन का हाथ भी रहता है। चूंकि अमेरिका ब्रिटेन आदि देश अरबों रुपये खर्च करके चर्च व ईसाइयत को भारत में मजबूत करना चाहते हैं अतः निश्चित रूप से इनकी संगठित इच्छा होगी एक ईसाई भारत का राष्ट्रपति बन सके।
पी. ए. संगमा का नाम इस बींच एक मजबूत विकल्प बनके उभर रहा है। पी. ए. संगमा कैथोलिक ईसाई हैं किन्तु कई पार्टियां उन्हें आदिवासी प्रत्याशी के रूप में पेश करने का प्रयास कर रही हैं। स्ंगमा का नाम जयललिता ने उठाया और वो इसे लेकर ख़ासी मेहनत भी करती दिख रही हैं। जयललिता हाल के दिनों में संगमा के समर्थन को लेकर कई पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं से भी मिली हैं। संगमा को लेकर कुछ प्रश्न स्वभावतः उठते हैं जिनका उत्तर तलाशना ही चाहिए। यद्यपि संगमा आठ बार सांसद, लोकसभा स्पीकर व दो वर्ष के लिए मेघालय के मुख्यमंत्री रह चुके हैं किन्तु फिर भी क्या मात्र इसी आधार पर उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए उपयुक्त मान लिया जाना चाहिए? इतनी या इससे भी अधिक योग्यता कई नेताओं के पास देश में है और वे पी. ए. संगमा से अधिक पहचान भी रखते हैं। संगमा ने किसी पार्टी द्वारा प्रत्याशी के रूप में पेश न किए जाने पर अपने बूते चुनाव लड़ने की बात कही है, क्या संगमा को लगता है कि राष्ट्रीय राजनीति में उनका इतना वजन है अथवा कोई बड़ी ताकत उनके पीछे है? इसके अतिरिक्त आदिवासियों की अपनी संस्कृति होती है, ईसाई बनने पर सबसे पहले ईसाई मिशनरियाँ शैतानी काम बताकर उसे ही छुड़वा देती हैं जिसके कारण आज आदिवासी संस्कृति संकट में पड़ती जा रही है। अतः जब संगमा जब ईसाई बन चुके हैं तब उन्हें आदिवासियों का प्रतिनिधि कैसे और क्यों माना जाना चाहिए? यदि आदिवासियों की राजनीति में भागीदारी को लेकर सचमुच ही राजनैतिक दल ईमानदार हैं तो किसी योग्य आदिवासी को, जोकि आदिवासी संस्कृति से जुड़ा हो व आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करता हो राष्ट्रपति पद के लिए आगे लाया जाना चाहिए।
पी. ए. संगमा एनसीपी से जुड़े हैं और जयललिता से उनकी दलगत अथवा क्षेत्रीय किसी भी प्रकार से अधिक निकटताएं समझ नहीं आती और न ही राजनैतिक लाभ की दृष्टि से संगमा जयललिता के लिए बहुत बड़ी चाल हैं। अतः जयललिता द्वारा उनके लिए की जा रही भागादौड़ी अकारण नहीं होनी चाहिए। कुछ वर्षों से जयललिता की चर्च से ख़ासी नज़दीकियाँ बढ्ने के संकेत मिले हैं, हिन्दुओं के पूज्यनीय कांचीकामकोटि शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती को अपमानजनक तरीके से फँसाने का प्रयास जयललिता द्वारा ही सरकार में रहते किया गया था। शंकराचार्य तमिलनाडु मठ से गरीबों की अत्यधिक सहायता करते हैं जिसके कारण चर्च के धर्मांतरण के प्रयासों में बाधा आती है अतः वे काफी लंबे समय से चर्च के निशाने पर हैं। क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि बिना किसी राजनैतिक लाभ के संगमा के लिए मेहनत कर रहीं जयललिता को चर्च एक एजेंट के रूप में प्रयोग कर रहा है क्योंकि तमिलनाडु सत्ता में जबर्दस्त वापसी के बाद वे पुनः देश की राजनीति में बड़ा विकल्प बनकर उभरी हैं? फिलहाल सोनिया को चर्च का सबसे करीबी समझा जाता है और संगमा सोनिया विरोधी राजनीति में रहे हैं अतः देखना होगा ईसाई उम्मीदवार के इस दांव में क्या कॉंग्रेस संगमा का समर्थन करती है अथवा भाजपा आदिवासी के धोखे में संगमा का साथ दे बैठती है! परिणाम चाहे कुछ भी हो किन्तु इतना तय है कि राष्ट्रपति जैसे गरिमामय पद के लिए चरण सेवकों की नियुक्ति अथवा चर्च-वैटिकन का हस्तक्षेप दोनों ही देश के हितों पर कुठाराघात एवं लोकतन्त्र का अपमान है।
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-वासुदेव त्रिपाठी

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