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रुपए के गिरते मूल्य व बढ़ती महंगाई के बींच भारतीय अर्थव्यवस्था इन दिनों बड़े संकट से गुजर रही है। यह संकट दो स्तरों पर है, पहला अर्थशास्त्रीय संकट (economical crisis) जो बड़े अर्थशास्त्रियों, कंपनियों के CEOs, शेयर दलालों व सरकारी मंत्रालयों के चर्चा व बहस का विषय है, आम जनता को इससे मतलब नहीं रहता। दूसरा संकट भीषण महंगाई व बेरोजगारी के रूप में है जिसने आम आदमी को दो समय की रोटी के लिए भी सोचने को मजबूर कर दिया है किन्तु यह सरकार व कॉर्पोरेट की चिन्ता का विषय नहीं है। एक देश की अर्थव्यवस्था की इससे बड़ी बिडम्बना और कुछ नहीं हो सकती। परिभाषाओं में इन दोनों संकटों को कितना ही एक साथ रखने का प्रयास क्यों न किया जाए यथार्थ में यह एक खाईं है जो दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। OECD रिपोर्ट 2011 के अनुसार विगत 20 वर्षों में भारत में गरीबी और अमीरी के बींच अन्तर दो गुना बढ़ गया है अर्थात अमीर दो गुना अमीर हो गया और गरीब दो गुना गरीब हो गया। क्या जमीन की सच्चाई यह नहीं बताती कि हमें अपनी राष्ट्रीय अर्थनीतियों की पुनर्समीक्षा की आवश्यकता है?
जिस अर्थशास्त्र पर हमारी आज की अर्थव्यवस्था निर्भर है वस्तुतः वह नियम परिभाषों का ऐसा जाल है जो न ही किसी समस्या को वास्तविक रूप में परिभाषित करता है और न उसके समाधान को ही। किसी भी विषय पर प्रायः अर्थशास्त्री ही एकमत दिखाई नहीं देते हैं। यदि कहा जाये कि यह अर्थव्यवस्था गरीबों के जीवन के लिए स्थान नहीं छोडती तो गलत नहीं होगा क्योंकि परिदृश्य यही स्पष्ट करता है। और स्पष्ट शब्दों में यह अर्थव्यवस्था परिभाषाओं के मकड़जाल में पूँजीपतियों का प्रोपगंडा मात्र है। इसी प्रोपगंडा अर्थव्यवस्था ने इन दिनों पॉलिसी पैरालिसिस अर्थात नीतियों में लकवा नाम से एक नया टर्म गढ़ा है। यह शब्द प्रत्येक क्षेत्र में, विशेष तौर पर फुटकर बाजार में, मुक्त विदेशी निवेश को सरकार द्वारा अनुमति न मिल पाने के कारण लाया गया है। पॉलिसी पैरालिसिस यह प्रचारित करने का प्रयास है कि रुपये का गिरता मूल्य व देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था का कारण प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को छूट न दिया जाना है तथा रीटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देकर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है व महंगाई गरीबी आदि का भी हल इसी से संभव है। इसे कॉर्पोरेट भाषा में लॉबिंग कहते हैं जिसका उद्देश्य कंपनियों का हित साधना होता है। लॉबिंग की एक शाखा प्रोपगंडा थियरि पर आधारित है कि किसी विषय को अपने अनुकूल इतना अधिक प्रचारित किया जाए कि लोगों की सोच बदल सके। यहाँ सच-झूठ महत्व नहीं रखता।
पिछले कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो 2006-07 में 2005-06 के $5,540 million की अपेक्षा 125% की वृद्धि के साथ $12,492 million का विदेशी निवेश हुआ तथा देश की GDP 9.2% रही, 2007-08 में पुनः 97% की वृद्धि के साथ यह निवेश $24,575 million हो गया किन्तु GDP 9.2% से 9% पर आ गई। 2008-09 में विदेशी निवेश में पुनः 28% की वृद्धि हुई और यह $31,396 million तक पहुँच गया किन्तु GDP 9% से 6.7% पर लुढ़क गई। 2009-10 में विदेशी निवेश में 18% की गिरावट आई किन्तु GDP 6.7% से 8% पहुँच गई, 2010-11 में यह और भी 25% कमी के साथ $19,427 million पर पहुँच गया जोकि 2007-08 से भी कम था किन्तु GDP 8% से उछलकर 8.5% पहुँच गई। 2011-12 में इसमें लगभग दोगुनी बढ़ोत्तरी हुई और यह 36.5 billion तक जा पहुंचा, मार्च,2012 निवेश 8 गुना बढ़कर रेकॉर्ड $8.3 billion विदेशी निवेश हुआ किन्तु इस वर्ष GDP 6.1 के रेकॉर्ड निम्न स्तर पर रही। महंगाई इस दौरान अनवरत बढ़ती रही यह सर्वविदित है। ऐसे में समझना कठिन हो जाता है कि किस आधार पर जनमानस में यह भरने का प्रयास हो रहा है विदेशी निवेश की कमी के कारण अर्थव्यवस्था संकट में जा फंसी है और किस आधार पर पॉलिसी पैरालिसिस जैसे शब्द गढ़े गए? सफाई में यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था के लिए एक कारण ही उत्तरदायी नहीं होता किन्तु फिर यह बताने का प्रयास क्यों हो रहा है कि केवल कड़े निवेश कानून ही अर्थव्यवस्था को डुबोए दे रहे हैं? यूरोपीय अर्थव्यवस्था के ढहने जैसे कारणों के कारण गिरते रुपये का कारण भी पॉलिसी पैरालिसिस बताने के प्रयास क्यों किए जा रहे हैं?
सत्य यह है कि $450 billion की भारी भरकम भारतीय खुदरा बाजार (retail sector) पर वाल मार्ट व टेस्को जैसे वैश्विक दबंगों की नजर गड़ी है जिसके चलते अमेरिका, विश्व बैंक, IMF आदि के भारी दबाब व इन कंपनियों की लॉबिंग के कारण सरकार ने नवम्बर 2011 में रीटेल में 51% विदेशी निवेश को स्वीकृति दे दी थी तथा यह बताने का प्रयास किया था कि इससे महंगाई कम होगी और रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। जबकि आंकड़े बताते हैं कि जिन जिन गरीब देशो में वाल मार्ट जैसी कंपनियाँ गईं वहाँ दीर्घकालिक समस्याएँ बढ़ी हैं। भारत में चार करोड़ परिवारों की रोटी खुदरा बाजार पर टिकी है जिसके चलते इस कदम का भारी व्यापारिक व राजनैतिक विरोध हुआ और सरकार को अपना फैसला स्थगित करना पड़ा। तभी से लॉबिंग व PR टीमों का प्रयोग करके मीडिया में पॉलिसी पैरालिसिस का राग तेज किया गया और इस सुनियोजित गढ़े गए शब्द से ऐसा भ्रम फैलाने का प्रयास शुरू हुए कि कथित आर्थिक सुधार न हुए तो अर्थव्यवस्था डूब जाएगी।
आज भी इस देश में आधे से अधिक जनसंख्या उस गरीबी के बोझ तले ज़िंदगी जी रही है कि कहीं भूख से कहीं ठंड से तो कहीं गर्मी से लोग सड़कों पर या टूटी झोपड़ी में मर जाते हैं, खून से लेकर किडनी तक बिकती हैं, कहीं कहीं माँ बाप की औलादें भी बिकती हैं किन्तु सरकार इक्नोमिक्स के बड़े-बड़े शब्दों में देश के विकास की बात करती है! करोड़ों रुपये विदेश यात्राओं पर और लाखों महीने के पेट्रोल पर खर्च करने वाले लाखों करोड़ों खर्च करके जो मीटिंग करते हैं उसमे तय किया जाता कि गरीबी की सीमा 27 रुपये है या 32 रुपए!!
जब तक देश की जनता के लिए अर्थशास्त्र की सारी परिभाषाएँ यहीं तक सीमित हैं कि उसे दो वक्त की रोटी मिल जाए, बच्चों के लिए दूध खरीद सके और इसलिए न मरे कि दवा खरीदने को पैसे नहीं थे, शॉपिंग मॉल विकास और अर्थव्यवस्था के मानक नहीं हो सकते। मनमोहन मंत्र और पॉलिसी पैरालिसिस के प्रोपगंडा सभी चन्द अमीरों के लिए की जाने वाली लॉबिंग मात्र हैं अन्यथा आर्थिक सुधार के इन 20 वर्षों मे (1991-2011) विकास के नाम पर गरीबी और अमीरी के बींच खाईं दोगुनी न हो गई होती! यही मनमोहन के अर्थशास्त्र व पॉलिसी पैरालिसिस के शोर की पोल है।
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-वासुदेव त्रिपाठी
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