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राष्ट्रपति की औपचारिकता का औचित्य

RASHTRA BHAW
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presidentभारतीय संविधान अपनी कई विशेषताओं के कारण विश्व में अनूठा माना जाता है किन्तु इसका सबसे बड़ा अनूठापन यह है कि लाखों बलिदानों के मूल्य पर जब भारत को 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से मुक्ति मिली और अपना तन्त्र स्थापित कर स्वतन्त्रता प्राप्ति का अवसर आया तो दुर्भाग्य से हमारे नीति निर्णायकों अथवा संविधान निर्माताओं ने वही तन्त्र व व्यवस्था देश पर थोप दी जिसके विरुद्ध पिछली दो सदी अनवरत संघर्ष किया गया था। भारतीय संविधान के लिए निर्माण के स्थान पर संकलन शब्द अधिक उपयुक्त है क्योंकि संविधान के ढांचे में विभिन्न देशों से जिस तरह व्यवस्थाएं जैसे कि अमेरिका से संघीय ढांचा व राष्ट्रपति, ब्रिटेन से संसदीय रूपरेखा, रूस से मौलिक कर्तव्य व संविधान की उद्देशिका (प्रिएम्बेल) की भाषा तक ऑस्ट्रेलिया से लाकर जोड़ी गई वह विभिन्न जाति के अंगों को जोड़कर एक नया शरीर बनाने जैसा था। भारतीय संविधान अंग्रेजों के बनाए नियम क़ानूनों पर आज तक काम कर रहा है यह सर्वविदित है। दुर्भाग्य से यह स्थिति तब बनी जब गांधी जी स्वयं कहा करते थे कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं!
संविधान की यह विडम्बना भारतीय राष्ट्रपति पद के संदर्भ में स्पष्टतः परिलक्षित होती है। नागरिक शास्त्र के रूप में जब बच्चा भारतीय संविधान का क ख ग घ सीखता है तभी से उसके मन में यह प्रश्न उठना प्रारम्भ हो जाता है कि राष्ट्रपति की वास्तव में शक्तियाँ अधिकार व औचित्य क्या क्या हैं किन्तु इसका उत्तर अन्त तक संभवतः एक पहेली ही बना रहता है। राष्ट्रपति के अधिकारों के संदर्भ में जिन शब्दों का प्रयोग संविधान में होता है उनमें पहला मुख्य शब्द है “सलाह”। यह शब्द सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद (council of ministers) की सलाह और व्यवहार में इच्छा के बिना कुछ नहीं करेगा। प्रयोगिक रूप से राष्ट्रपति को ठप्पा मात्र सिद्ध करने के लिए यह शब्द स्वयं में पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को चार अधिकार प्राप्त हैं कि मंत्रिपरिषद कब तक सत्ता में रहेगी, नए राज्यों के निर्माण अथवा पुनर्निर्धारण जैसे कानून संसद राष्ट्रपति की अनुशंसा पर ही प्रस्तावित करेगी, उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति विधि विशेषज्ञों की सलाह पर करेगा एवं नए राज्य के निर्माण अथवा उससे संबन्धित निर्णयों में राष्ट्रपति उस राज्य की विधानसभा से विचार विमर्श करेगा। वास्तविक धरातल पर राष्ट्रपति के इच्छाकाल का आशय सरकार के कार्यकाल मात्र से होता है तथा राष्ट्रपति के नाम पर राज्यों के गठन से लेकर न्यायाधीशों की नियुक्ति में विचार विमर्श व निर्णय मंत्रिपरिषद ही करती है। भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश के निर्माण को स्वीकृति देकर नेहरू सरकार ने 1953 में जो भूल की थी वह पं राजेंद्र प्रसाद संभवतः नहीं करते यदि राष्ट्रपति के रूप में उनके हाथ में वास्तविक अधिकार होते! तेलंगाना पर मचे बवाल में भी इन पाँच सालों में प्रतिभा पाटिल का नाम शायद किसी ने भी नहीं सुना होगा। यदि और अधिक धरातल पर आकर देखा जाए तो इन सभी अधिकारों की चाभी मंत्रिपरिषद के हाथ भी न होकर दस जनपथ की सुप्रीमो के हाथ में ही है, बावजूद इसके कि गठबंधन धर्म की मजबूरियां सामने रहती हैं। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के आदर्श पर टिके लोकतन्त्र में सत्ता का एक जगह केन्द्रित होने का यह हास्यास्पद सच संविधान की विचित्र विडम्बना है।
राष्ट्रपति के संदर्भ में यह संवैधानिक विडम्बना तब और भी अधिक जटिल व सोचनीय हो जाती है जब संविधान की दृष्टि में इस सर्वोच्च पद की नियुक्ति भी व्यक्ति विशेष की दया अनुकम्पा के आधार पर की जाती है। आगामी राष्ट्रपति को लेकर जिस तरह से सियासी उठापटक का दौर चल रहा है उसे सियासी तमाशे का एक अद्भुत नमूना ही कहा जा सकता है। अपने बूते राष्ट्रपति बना पाने में असमर्थ होने के बाद भी कॉंग्रेस किसी भी कीमत पर दस जनपथ के विश्वसनीय को ही राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठे देखना चाहती है क्योंकि कई बार निर्णय लेने में अक्षम होने पर भी राष्ट्रपति से निर्णयों को रोकने जैसे काम बखूबी कराये जा सकते हैं। यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब कॉंग्रेस भी यह जानती है कि ये पाँच साल यदि पूरे हो भी जाएँ तो भी अगली बार सत्ता से काफी दूर ही महफिल जमानी पड़ेगी।
यदि कॉंग्रेस ने वास्तव में प्रणब मुखर्जी पर ही अंतिम निर्णय लिया है तो स्पष्ट है कि इस बार कॉंग्रेस केवल संकेत समझने वाला नहीं वरन संकेत समझने वाला राजनैतिक बुद्धिजीवी राष्ट्रपति के रूप में चाहती है। जहां तक हामिद अंसारी का प्रश्न है सोनिया उन्हें ऐसी गोट के रूप में प्रयोग करना चाहती हैं जो वास्तव में प्रणव को मजबूत करने के लिए ही चली गई है क्योंकि अंसारी के नाम पर ममता मुलायम दोनों की असहमति है अतः कॉंग्रेस को उम्मीद है कि अंसारी के मुक़ाबले प्रणव विकल्प रूप में स्वीकार कर लिए जाएंगे। ममता मुलायम ने अपनी मर्जी से तीन नाम रखकर जो दांव चला है उससे कॉंग्रेस भले ही असहज दिख रही हो किन्तु इतना तो तय है कि अंतिम निर्णय दस जनपथ की पसंद से ही होगा भले ही वह थोड़ा सीधे सामने आए अथवा और अधिक राजनैतिक तमाशे के बाद। तीन साल दिल्ली पर हेकड़ी चला चुकीं ममता अब भले ही बंगाल की कुर्सी से संतुष्ट हो जाएँ किन्तु सौदेबाजी में सिद्ध मुलायम अभी कॉंग्रेस से काफी लाभ लेना चाहेंगे, विशेषकर तब जब उनके पास भाजपा नीत किसी भी विकल्प पर विचार करने की कोई संभावना नहीं है। इस द्वंद की वास्तविकता तथा परिणाम चाहे कुछ भी हो किन्तु इतना तय है कि पहले से ही संविधान द्वारा एक ठप्पे के रूप में स्थापित राष्ट्रपति पद की अब गरिमा भी दांव पर है। डॉ कलाम जैसे व्यक्ति के साथ जहां देश के आम आदमी की सहानुभूति के साथ साथ भाजपा सहित कथित रूप से मुलायम ममता आदि का समर्थन भी है किन्तु फिर भी जिस तरह से दस जनपथ की पसंद नापसंद के कारण उन्हें किनारे किया जा रहा है उससे राष्ट्रपति चुनाव की उस प्रक्रिया की कलई भी खुल जाती है जिसमें जनसंख्या के आधार पर विधायकों व सांसदों के वोट का मूल्य निर्धारण कर यह माना जाता है कि विधायक व सांसद राष्ट्रपति चुनने में जनता का प्रतिनधित्व करेंगे।
ऐसे में देश के प्रथम नागरिक के रूप में चुनकर कोई भी आए लेकिन इतना निश्चित है कि वर्तमान संवैधानिक आधार पर तो भविष्य में देश को कृपापात्र राष्ट्रपति ही अधिक मिलेंगे जो स्वयं पर की गई कृपा का ऋण उतारने के लिए अपने कृपालु के सम्मुख नतमस्तक रहेंगे और सपरिवार विदेश यात्राओं पर आम आदमी के खून पसीने की कमाई के 200-300 करोड़ खर्च कर देश को अपनी सेवाएँ देते रहेंगे।
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यह लेख राजनैतिक आंकलन पर लिखा गया था, अब जबकि चित्र स्पष्ट हो गया है और वैसा ही हुआ जैसा की राजनैतिक जोड़-घटाने के आधार पर लेख में अनुमान लगाया गया था। मुलायम कॉंग्रेस के साथ चले गए हैं और ममता किनारे हो गईं हैं ऐसे में प्रणब का राष्ट्रपति बनना भले ही तय हो गया हो लेकिन मुलायम ने कॉंग्रेस को ठग लिया है भले ही कुछ विश्लेषक ममता को ठगा समझ रहे हैं। अब कॉंग्रेस का सत्ता में 2014 तक टिकना लगभग असंभव हो गया है लेकिन फिर भी अगले पाँच सालों के लिए रायसीना हिल 10 जनपथ की पक्की पकड़ में जा चुका है।
-वासुदेव त्रिपाठी

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