RASHTRA BHAW
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भावना को है समर्पण।
मुक्ति को यह विश्व अर्पण।
उर्मियों की कृति क्षणिक हो,
पर वेग में विश्वास मेरा,
वेग से है तृप्ति तर्पण॥
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नक्त के भी स्वप्न अगणित।
ध्वान्त में पुष्पित फलित।
स्वीकृत करेंगी अंशु रवि की?
सृष्टि को उद्वेगना है!
संबल दिये है आश विगलित॥
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मौन के यह नाद नीरव।
चिर पुरातन नव्य कैरव।
भावना के गीत सुनकर,
कह रहे दुष्कर नहीं कुछ,
स्वांस के उन्मुक्त कलरव॥
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तुम कहो ये मूढ़ता है।
शून्य में क्या ढूँढता है।
किन्तु मेरी दृष्टि में जब,
मरुभूमि ही प्रस्तर यहाँ हो,
मरु-प्रासाद की यह मूढ़ रचना,
भी स्वयं में गूढ़ता है॥
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-Vasudev Tripathi
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