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आश की गूढ़ रचना

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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भावना को है समर्पण।

मुक्ति को यह विश्व अर्पण।

उर्मियों की कृति क्षणिक हो,

पर वेग में विश्वास मेरा,

वेग से है तृप्ति तर्पण॥

**

नक्त के भी स्वप्न अगणित।

ध्वान्त में पुष्पित फलित।

स्वीकृत करेंगी अंशु रवि की?

सृष्टि को उद्वेगना है!

संबल दिये है आश विगलित॥

**

मौन के यह नाद नीरव।

चिर पुरातन नव्य कैरव।

भावना के गीत सुनकर,

कह रहे दुष्कर नहीं कुछ,

स्वांस के उन्मुक्त कलरव॥

**

तुम कहो ये मूढ़ता है।

शून्य में क्या ढूँढता है।

किन्तु मेरी दृष्टि में जब,

मरुभूमि ही प्रस्तर यहाँ हो,

मरु-प्रासाद की यह मूढ़ रचना,

भी स्वयं में गूढ़ता है॥

***

-Vasudev Tripathi

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