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सुरजीत की रिहाई से उभरते सवाल

RASHTRA BHAW
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surjपाकिस्तान में कैद भारतीय बंदी सरबजीत की रिहाई का मामला जिस तरह से पुनः सामने आया और पाकिस्तान ने जिस तरह सरबजीत सुरजीत में भ्रमित किया अथवा उसने पलटी मारी उससे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान की जमकर किरकिरी हुई है। पाकिस्तान के लिए इस तरह की स्थिति बहुत नयी बात नहीं है किन्तु सुरजीत की रिहाई के बाद भारत की अपने राष्ट्रीय हितों के लिए काम करने वाले नागरिकों के प्रति गैरजिम्मेदाराना उपेक्षापूर्ण रवैया जिस तरह सामने आया है वह निराशाजनक है। सुरजीत सिंह पाकिस्तान में भारतीय खुफिया एजेन्सी रॉ के लिए जासूसी करने गए थे और 1980 में पाकिस्तान द्वारा कैद कर लिए गए थे। सुरजीत सिंह ने अपने जीवन के 32 साल अपने परिवार व देश से दूर कैद में बिताए क्योंकि उन्होने देश के लिए इतना बड़ा जोखिम उठाया था। भारत वापसी के समय सुरजीत ने यह स्वीकार भी किया कि वे पाकिस्तान भारत के लिए जासूसी करने गए थे लेकिन पाकिस्तान में उनके पकड़े जाने के बाद भारत की सरकार व एजेंसियों ने उन्हें पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। सुरजीत ने कहा कि जिस तरह उनकी उपेक्षा की गई उस विषय में वे मुंह नहीं खोलना चाहते अन्यथा उनके दिल में बहुत कुछ कहने को है।
एक राष्ट्र के नागरिक का यह राजनैतिक कर्तव्य होता है कि आवश्यकता पड़ने पर वह राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राण बलिदान तक के लिए समर्पित रहें, साथ ही प्रत्येक राष्ट्र का भी प्रथम कर्तव्य होता है कि वह अपने नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहे। किन्तु देश के लिए अपने आप को संकट में डालने वाले अपने एक नागरिक से जिस अंदाज में मुंह मोड़ा गया वह अपने नागरिक के प्रति देश के कर्तव्य निर्वहन के साथ साथ सुरक्षा प्रणाली की कार्यप्रणाली पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। जिस जासूस को एक देश अपने हितों को साधने के लिए दूसरे देश भेजता है पकड़े जाने पर वही जासूस उसके लिए संकट बन सकता है, ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता है कि देश की सरकार अपने जासूस को छुड़ाने के लिए प्रत्येक संभव कदम उठाए। इसके अतिरिक्त यह एक राष्ट्र के आत्मविश्वास व अपने सैन्यतंत्र को लेकर समर्पण व सजगता को भी स्पष्ट करता है। इस सन्दर्भ में भारत को अमेरिका जैसे देशों से सीख लेने की आवश्यकता है। अमेरिका अपने नागरिकों व विशेषकर गुप्तचरों के हितों के लिए किस सीमा तक समर्पित रहता है इसका उदाहरण कुछ दिनों पहले पाकिस्तान में पूरे विश्व के सामने आया था जब लाहौर में दो पाकिस्तानी नागरिकों की हत्या के बाद सीआईए एजेंट रेमंड एलेन डेविस को पाकिस्तान ने गिरफ्तार कर लिया था। अमेरिका ने डेविस को छुड़ाने के लिए पाकिस्तान को दो टूक चेतावनी दे डाली थी जबकि अमेरिका यह भलीभांति जानता था पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह तर्क दिया जा सकता है कि भारत अमेरिका के बराबर हैसियत नहीं रखता और न ही पाकिस्तान अमेरिका की तरह भारत के दबाब में है किन्तु सशक्त स्थिति के बाद भी इस लाचारी के लिए उत्तरदायी कौन है? और यदि भारत पाकिस्तान में अमेरिका की तरह हस्तक्षेप करने व दबाब बनाने में सक्षम नहीं भी है तो भी भारत के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी हैं कि वह रोज नयी वार्ताओं के लिए तो तैयार रहता है किन्तु अपने नागरिकों के बचाव के लिए एक भी बिन्दु अथवा शर्त वार्ता में रखने का साहस नहीं कर पाता? यद्यपि भारत की जेलों में भी कई पाकिस्तानी छोटे बड़े मामलों में बंद हैं तथापि भारत वैश्विक पटल पर पाकिस्तान की आतंकवादी देश की पहचान का लाभ उठाकर दबाब बना सकता है व पाकिस्तान में कैद अपने नागरिकों व जासूसों के मामलों को भारत में कैद पाकिस्तानियों के मामलों से काफी हद तक अलग कर सकता है। वास्तविकता भी यही है कि भारत के जासूस यदि पाकिस्तान जाते हैं तो पाकिस्तान की बुरी मंशाओं का पता लगाना उनका उद्देश्य होता है जबकि पाकिस्तानी आईएसआई जासूस भारत में बुरी मंशाओं को अंजाम देने आते हैं। भारत में अब तक की सभी आतंकवादी गतिविधियों में आईएसआई का हाथ रहा है। किन्तु दुर्भाग्य से भारत हाफिज़ सईद जैसे आतंकवादियों के मुद्दों पर ही पाकिस्तान पर दबाब बनाने में सफल नहीं हो पाता कि आगे सरबजीत और सुरजीत जैसे नागरिकों की मुक्ति को भी मुद्दा बनाया जा सके।
हमें यह याद रखना चाहिए कि एक देश अपने राजनैतिक व सामरिक हितों की रक्षा के लिए जासूसी गतिविधियों की उपेक्षा नहीं कर सकता। जासूसी सदैव से कूटनीति का अनिवार्य अंग रहा है और एक जासूस सीमा पर सीधे लड़ रहे सैनिक से कम महत्वपूर्ण नहीं होता है। वर्तमान समय में जासूसी सैन्यनीति का इतना अनिवार्य अंग हो चुकी है कि लगभग सभी देश युद्ध की दूर दूर तक संभावनाएं न होते हुए भी विश्व के अन्य देशों में अपने जासूस तैनात करके रखते हैं। वर्तमान के अविश्वासात्मक वैश्विक परिदृश्य में यह इतना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि एक देश अपने घनिष्ठ मित्र देश के भी आर्थिक, राजनैतिक व सामरिक मामलों की जासूसी करने से नहीं चूक रहा है। अभी कुछ ही महीने पूर्व फ़रवरी में कोची में रह रहा एक इसराएली युगल जासूसी के सन्देह में भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के लेन्स में आया था जिसे बाद में इसराएल वापस भेजने के आदेश दिए गए थे, जबकि सभी जानते हैं कि भारत-इसराएल के संबंध काफी मित्रतापूर्ण रहे हैं। चीन, पाकिस्तान, अमेरिका जैसे देशों से भारत को लगातार एजेंट व साइबर जासूसी का खतरा रहता ही है। जापान में चीनी राजदूत पर ही जासूसी के आरोप लगे हैं। चीन ने अमेरिका के लिए जासूसी के आरोप में अपने ही सुरक्षा अधिकारियों को इसी महीने गिरफ्तार किया है। रूस जिस तरह अमेरिका भारत आदि में जासूसी के लिए खूबसूरत औरतों का प्रयोग करता है वह भी कई बार सामने आ चुका है। ऐसे तमाम उदाहरण यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं कि आज भले ही विश्व के देशों के बींच साइबर जासूसी की होड़ लगी हो किन्तु मानव जासूसों की उपयोगिता बिलकुल भी कम नहीं हुई है। अतः यदि भारत के सुरजीत जैसे जासूस 32 साल बाद देश लौट पाने के बाद यदि भरे मन से कहते हैं कि उनके अपने ही देश ने उन्हें संकट में पड़ने पर छोड़ दिया तो यह देश का अपने सैन्य हितों व नागरिकों के प्रति समर्पण पर गम्भीर प्रश्नचिन्ह लगाता है। हमें याद रखना चाहिए कि कोई भी राष्ट्र अपने नागरिकों व सैन्य हितों की उपेक्षा करके सुरक्षित नहीं रह सकता।
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गृह सचिव के इस बयान के बाद कि सुरजीत भारत के जासूस नहीं थे और लोग ऐसा ख्याति पाने के लिए करते हैं, लेख को लेकर कुछ पाठकों की शंकाएँ हैं। स्पष्ट करना चाहूँगा कि यह लेख व्यक्तिगत सुरजीत पर नहीं वरन उन नीतियों पर केन्द्रित है जो देश के व नागरिकों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ हैं। मैं इस बात से पूर्णतयः सहमत हूँ कि राष्ट्रहित में इसे खुले आम यह नहीं स्वीकारा जा सकता कि भारत पाकिस्तान में अपने जासूस भेजता है अथवा गृहमंत्रालय का बयान सही भी हो सकता है कि सुरजीत भारत के जासूस न हों। तथापि मूल प्रश्न पूर्णतयः प्रासंगिक रहते हैं जो सुरजीत की रिहाई और उसके बयान के बाद उठते हैं। एक तरीका अमेरिका अमेरिका का अपने खुफिया एजेन्टों को बचाने का है और एक तरीका भारत का है जो अपने नागरिकों के लिए भी सशक्त तरीके से बात तक नहीं उठा पाता!!! यदि सुरजीत भारतीय एजेंट नहीं भी थे तो भी वे भारत के नागरिक तो अवश्य थे और सरबजीत जैसे और भी कितने नागरिक अपने देश के नीतिनियंताओं की दुमहिलाऊ नीतियों के कारण पाकिस्तानी जेलों में बंद हैं…!!! यदि नीतियों में आत्मविश्वास हो तो अपने जासूसों को भी अमेरिका की तरह निर्दोष नागरिक की भांति निकालकर लाया जा सकता है। क्या भारत जैसे देश की ऐसी ही स्थिति है कि पाकिस्तान जैसे देश के आगे दुमहिलाऊ अंदाज में बार बार खड़ा दिखे..??
-वासुदेव त्रिपाठी

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