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राष्ट्रीयता स्वयं में एक आस्था है व राष्ट्र स्वयं में विशिष्ट पहचान, संभवतः इसी भावना के आधार पर पंथनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना की गई होगी। किन्तु असम व म्यांमार हिंसा की प्रतिक्रिया में मुम्बई समेत देश के कई स्थानों पर जो हुआ वह संविधान की धर्मनिरपेक्ष कल्पना के मुंह पर एक करारा तमाचा है।
मुम्बई में रजा अकैडमी के तत्वाधान में 12 अगस्त को विरोध का आयोजन किया गया जिसमें तीन परिवहन बसों समेत दर्जन भर से अधिक वाहनों व मीडिया वैनों को तोडफोड डाला गया अथवा आग के हवाले कर दिया गया। पुलिस एवं मीडियाकर्मियों पर जिस तरह हमला हुआ व उन्हें बेरहमी से पीटा गया वह दंगाइयों के बेखौफ जुनून को स्पष्ट करता है। दो जिन्दगी अचानक भड़की इस हिंसा की भेंट चढ़ गईं तथा पचास से अधिक गंभीर रूप से घायल हुए हैं जिनमें अधिकांश पुलिस तथा मीडियाकर्मी हैं। देश में इस प्रकार की हिंसक घटनाएँ निश्चित रूप से असाधारण नहीं हैं किन्तु जिस विषय को लेकर यह आयोजन रचा गया तथा जिस आधार पर यह भयंकर हिंसा हुई वह देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के सामने गंभीर प्रश्न खड़ा करता है।
असम में भड़के दंगे हिन्दू-मुस्लिम अथवा मन्दिर-मस्जिद की पृष्ठभूमि के बिलकुल भी नहीं थे। यह असम मूल के बोडो भारतीयों एवं बांग्लादेश के अवैध घुसपैठियों के बींच का संघर्ष था। बंगलादेशी घुसपैठिए न सिर्फ असम की संस्कृति व व्यवस्था के लिए खतरा हैं अपितु असम के अस्तित्व के लिए भी चुनौती हैं। वे असम को भविष्य में दूसरा कश्मीर बनाने की राह पर ले जा रहे हैं जैसा कि असम के कुछ क्षेत्रों में दिखने भी लगा है। अतः पूर्ण स्पष्टता के साथ कहा जाए,जैसा कि मैंने पिछले लेख में लिखा, तो यह राष्ट्रीयता का संघर्ष है। भारत की भूमि व भारत के संसाधनों पर मात्र भारतीयों का अधिकार है। यह किसी भी कोण से न्यायसंगत व नैतिक नहीं ठहराया जा सकता कि भारत के नागरिक आभाव व गरीबी में जीवनयापन करें, उनके बच्चे दो समय के दूध से वंचित कुपोषण की हालत में दम तोड़ें जबकि देश के संसाधनों पर विदेश से आए घुसपैठिए बेरोक-टोक मौज उड़ायेँ और बदले में भारतीयों को उनसे लूट खसोट, हिंसा-हत्या, स्मग्लिंग व विघटन के उपहार मिलें! असम में बांग्लादेशियों का यही योगदान है।
बांग्लादेशियों के कुकृत्यों को यदि प्राथमिक विषय न भी माना जाए तो भी भारतीय मुसलमानों को उनका समर्थन क्यों करना चाहिए.? क्या बस इसीलिए कि वे मुसलमान हैं और दीने-इस्लाम से ताल्लुक रखते हैं.? यह पैंतरेबाजी काम नहीं आ सकती कि असम में बंगलादेशियों की आड़ में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है! असम का सत्य नग्न सत्य है और बंगलादेशी घुसपैठियों की बाढ़ आंकड़ों से प्रमाणित है। स्वयं घटनाक्रम इस बात का प्रमाण है कि हिंसा मुसलमानों द्वारा प्रारम्भ की गई तथा बाद में हजारों लाखों बोडो व आदिवासियों को निशाना बनाया गया। मरने वाले केवल बंगलादेशी ही नहीं हैं, असमियों की भी बड़ी संख्या में हत्या की गई तथा उनके घरों को जलाया गया। आंदोलन सिर्फ मुसलमानों के लिए ही क्यों.? यदि भारतीय मुसलमानों की फिक्र का प्रश्न था तो बांग्लादेशियों के खिलाफ तो आवाज उठनी चाहिए थी! उत्तर स्पष्ट है, आंदोलनकारियों के मंसूबों और मानसिकता इससे ही समझा जा सकता है कि केवल असम में बंगालदेशी ही उनके एजेंडे में नहीं थे वरन म्यांमार में दंगों में मर रहे मुसलमान भी उनके दिलों की तकलीफ का बड़ा कारण हैं। म्यांमार में मुस्लिम-बौद्ध संघर्ष में मर रहे मुसलमानों की फिक्र पूरी दुनिया के मुसलमानों में छाई है, इंटरनेट पर इसके लिए पूरे ज़ोर से आंदोलन चलाये जा रहे हैं जिसमें बौद्धों को एकतरफा दोषी बताया जा रहा है, इस तथ्य पर बात किए बिना कि म्यांमार दंगे मुसलमानों ने एक बौद्ध लड़की का बलात्कार कर हत्या करके व बौद्धों पर हमला करके प्रारम्भ किए हैं। भारतीय मुसलमान, मौलवी, संगठन, व इंडियन इस्लामिक कल्चरल सेंटर जैसी सरकारी संस्थाएं भी इस अभियान में ज़ोर-शोर से लगी हैं। असम दंगों के बाद राष्ट्रीयता व राष्ट्रीय संप्रभुता एकता को ताक पर रखकर उस अभियान में असम को भी जोड़ लिया गया जिसकी परिणिति मुम्बई की हिंसा व हैदराबाद पुणे एवं देश के अन्य भागों में नॉर्थ-ईस्ट के लोगों तथा भारत की एकता के विरुद्ध हमलों के रूप में देश के सामने आ रही है।
बताते हैं कि इस आज़ाद मैदान में इकट्ठा होने के लिए नारा दिया गया था कि “मुसलमानों हुकूक की हिफाजत के लिए आवाज़ उठाओ”। इस्लाम की आवाज पर मुम्बई के एक आजाद मैदान में 50,000 मुसलमान इकट्ठा हो गए जबकि आयोजकों के अनुसार केवल 1000 का अनुमान एवं व्यवस्था थी। भाषण देने वाले चंद मुल्ला मौलवियों तथा आवामी नेताओं के साथ साथ जुटी भीड़ से अनुमान लगाया जा सकता है कि देश के अंदर मजहबी मानसिकता के लिए देश और दीन में कौन बड़ा है.? मुसलमानों की ऐसी ही जुनूनी भीड़ कभी कश्मीर की एकता के लिए, कश्मीरी पण्डितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ अथवा 26/11 जैसे आतंकी हमलों के खिलाफ क्यों नहीं उमड़ती.? सीमाएं उस समय टूट जाती हैं जब मुम्बई आन्दोलन में एक जेहादी मजहबी जुनून में शहीदों की स्मृति में बनी “अमर जवान ज्योति” तक तोड़ डालता है। स्पष्ट है कि यह मानसिकता एक सांस्कृतिक राष्ट्र में विश्वास नहीं करती अपितु इसके लिए उम्मह या दारुल-इस्लाम की भावना ही एक मात्र आदर्श व ध्येय है। इससे इन्कार करने वालों को बताना होगा कि अन्यथा यदि स्वतन्त्रता पूर्व तुर्की में खलीफा के विरुद्ध यदि अंग्रेज़ कोई कार्यवाही करते तो क्यों भारत में खिलाफत आन्दोलन खड़ा होता है और मालाबार में हजारों हिंदुओं की हत्या कर दी जाती है? क्यों धर्म के आधार पर एक पाकिस्तान की मांग उठती है और क्यों उसका समर्थन होता है? क्यों एक कश्मीर तैयार होता है जहां से सदियों से कश्मीरी विरासत सँजोये कश्मीरी पण्डितों को मारकर लूटकर भगा दिया जाता है? क्यों भारत में पाकिस्तान के क्रिकेट जीतने पर पटाखे दगाए जाते रहे हैं.? क्यों इस्राइल-फिलिस्तीन के आपसी झगड़े में भारत में लोगों को दर्द उठता है? क्यों भारतीय हितों को ताक पर रखकर कल्बे सादिक़ जैसे बड़े और पढ़े लिखे मुस्लिम मौलाना उलेमा अमेरिका से सम्बंध तोड़ने, अमेरिकी दूतावास बंद करने जैसी मूर्खतापूर्ण मांगें करते हैं? क्यों बुश या अन्य अमेरिकी नेताओं के भारत आने के खिलाफ मुसलमान सड़कों पर उतरता है? क्यों ओसामा के मारे जाने पर भारत में शोक सभाएं आयोजित होती हैं? क्यों सिमी और इंडियन मुजाहिद्दीन यहाँ पैदा होते हैं और मदद पाते हैं.? क्यों असम में अपने राष्ट्रभाइयों के दर्द समझने की जगह बंगालदेशी मुसलमानों के पक्ष में रैलियाँ होती हैं और देश के जन-धन को नष्ट किया जाता है?
प्रश्न भले ही इसके आगे अभी बहुत हों किन्तु उत्तर एक ही है। हमे उस उत्तर को तलाशना नहीं है वरन स्वीकारना है और इसके लिए बौद्धिक मुस्लिमों को सबसे पहले आगे आने की आवश्यकता है।
आपकी आस्था भले ही मक्का में हो किन्तु भारत का अस्तित्व जिस संस्कृति व विचारधारा से है वह अरब से नहीं आती। दारुल-इस्लाम के स्थान पर भारतीय संप्रभुता में निष्ठा लानी होगी, भारतवर्ष के हित के लिए क्या बांग्लादेश पाकिस्तान और क्या ईरान, ईराक सीरिया, सऊदी अरब, सभी को एक कोने में डालने का हौसला जगाना होगा। राजनेताओं को भी उपयोगी शिक्षा के स्थान पर रूढ़िवादी मदरसों को प्रोत्साहन देने, कट्टरपंथ को शह देने व घुटने टेकने जैसी हरकतों से बाज आना होगा। अन्यथा जब तक राष्ट्र की अखंडता के विरुद्ध मुम्बई जैसे दंगे होते रहेंगे तब तक प्रश्न खड़े होते ही रहेंगे कि यह कैसी राष्ट्रीयता है जिसके लिए मजहब राष्ट्रधर्म से बड़ा है.!!
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-वासुदेव त्रिपाठी
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