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एक और आपातकाल की ओर?

RASHTRA BHAW
RASHTRA BHAW
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Graphic2लोकतन्त्र में यदि सरकार सच को स्वीकारने की अपनी अक्षमता के चलते अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के हनन की सीमा तक पहुँच जाए तो यह स्वयंसिद्ध हो जाता है कि सरकार लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पूर्णतः असफल हो चुकी है। ऐसी सरकार को लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बने रहने का नैतिक अधिकार ही नहीं रह जाता है। 1975 के आपातकाल के बाद आज पुनः एक बार सरकार यदि उस स्थिति में नहीं तो उस मनोदशा में अवश्य पहुँच गई है।
वर्तमान सरकार जनता, सत्ता और संविधान के प्रति किए गए अपने अपराधों की मुखर आलोचना सुनने की सहनशीलता खो चुकी है और उसी का परिणाम है कि सरकार झुंझलाहट भरे आलोकतांत्रिक व्यवहार पर उतर आई है। सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर शिकंजा कसने के सरकार के प्रयास इसी झुंझलाहट की असंतुलित प्रतिक्रिया है जिसे कि वह कई बहानों के चोले से ढंकने का प्रयास कर रही है। बाबा रामदेव का आंदोलन रहा हो अथवा अन्ना का अभियान, सरकार व कॉंग्रेस की तरफ से जिस तरह की प्रतिक्रिया व बयानबाजी की गई वह उसकी हताशा व अवसाद को बखूबी स्पष्ट करती है। उत्तर प्रदेश में कॉंग्रेस की असफलता के साथ साथ राहुल गांधी का औंधे मुंह गिरना और उसके बाद एक और बड़े राज्य आन्ध्र प्रदेश में सूपड़ा साफ होना कॉंग्रेस और सोनिया गांधी की हताशा के ऊपर और कई मन का बोझ बढ़ा गया। निश्चित रूप से इन असफलताओं में कॉंग्रेस नीत केंद्र सरकार के काले इतिहास का बहुत बड़ा योगदान है।
इसे दुर्भाग्य कहा जाए या भ्रष्ट मानसिकता का दुराग्रह कि सत्तासीन अपने इन पापों को स्वीकारने व सुधारने के स्थान पर सतत सीनाजोरी का रास्ता अपनाए हुए हैं! इसी दुराग्रह के चलते सरकार अन्ना के विरुद्ध भद्दी बयानबाजी और रामदेव पर सस्ते आरोप लगाकर अपनी साख बचाने का बचकाना प्रयास करती रही है और अब उसी बचकानी सोच का परिणाम है कि सरकार सोशल नेटवर्किंग साइट्स को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही है। गूगल सहित फेसबुक व ट्विटर जैसी वेबसाइट्स से सरकार लंबे समय से आमने-सामने की स्थिति में है। हाँलाकि सरकार भले ही सांप्रदायिक सौहार्द और अश्लीलता जैसे तर्क देकर अपने सर्वालोचित निर्णय को सही सिद्ध करने में जुटी हो किन्तु वास्तविकता यही है कि इंटरनेट सरकार और विशेषकर काँग्रेस की आलोचना का एक गढ़ बनता जा रहा है जहां छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जानकारी एक लहर के साथ उठती है और आम जनमानस से टकराकर एक ज्वार में बदल जाती है। यद्यपि यह सत्य है कि कई बार पोस्ट्स और प्रतिक्रियाएँ भद्रता की सीमा का उल्लंघन कर जाती हैं तथापि हम इससे इंकार नहीं कर सकते कि यह आम आदमी के आक्रोश का अनियंत्रित प्रकटीकरण ही है। दिग्विजय सिंह जैसे नेता, जोकि अभी तक अनर्गल और अभद्र बयानबाजी करके भी सीना ताने रहते थे, आज सोशल मीडिया की इस तपिश को बखूबी महसूस कर रहे हैं। इन नेताओं के साथ साथ मीडिया के भी एक तबके को सोशल मीडिया ने यह अहसास करा दिया है कि जनता न तो मूर्ख है और न गूंगी ही..!! इंटरनेट के इस युग ने पहली बार जनता को बोलने का मौका दिया है अतः अब जनता धमककर बोल रही है।
जहां तक अश्लीलता और सांप्रदायिकता का प्रश्न है इसके पीछे दो महत्वपूर्ण बातें हैं। एक तो अश्लीलता को लेकर सरकार चिन्तित हुई हो ऐसा बिलकुल नहीं है क्योंकि इंटरनेट पर अश्लील वेबसाइट्स की भरमार है और आंकड़ों के अनुसार यह खजाना प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है किन्तु इससे सरकार को कोई लेना देना नहीं है। दूसरा, सांप्रदायिक आस्थाओं को ठेस पहुंचाने वालों की संख्या कुल यूजर्स की तुलना में बहुत कम हैं, साथ ही ऐसा करने वाले किसी एक समुदाय से संपर्क नहीं रखते किन्तु कॉंग्रेस सरकार व कुछ अन्य वोट बैंक की राजनीति करने वाले यह संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं कि ये केवल बहुसंख्यक ही हैं जो अल्पसंख्यक भावनाओं पर प्रहार कर रहे हैं। मुलायम सिंह तो एकतरफा मांग भी कर चुके हैं कि मुस्लिम विरोधी पेजों को बंद किया जाना चाहिए। वास्तविकता में इंटरनेट एक वैश्विक पटल है जहां इस्लाम की अधिकतर आलोचना/समालोचना पश्चिमी देशों से चलने वाली ईसाई अथवा यहूदी वेबसाइट्स के द्वारा की जाती है। बहुधा भारत में लोग वहीं से सामाग्री लाकर सोशल साइट्स पर डालते हैं। इसी प्रकार हिन्दूविरोधी पेजों की भी कमी नहीं है। किन्तु जो भीड़ है वो उन लोगों की है जो सरकार को भ्रष्टाचार से लेकर तुष्टीकरण तक आड़े हाथों ले रहे हैं। यही कारण है कि असम दंगों में अफवाह के नाम पर सरकार अपने विरोधियों पर निशाना साधने में जुटी है। कॉंग्रेस का पूरा प्रयास है कि संघ जैसे संगठनों को अफवाह फैलाने का दोषी सिद्ध किया जाए। इसीलिए सुनियोजित तरीके से हिन्दू संगठनों का नाम उछाला जा रहा है। एक भी गिरफ्तारी अथवा सबूत के बिना मनगढ़ंत आशंकाओं का हवाला देकर कहने का प्रयास हो रहा है कि एसएमएस फैलाने वालों में 10-20% हिन्दू संगठन भी हैं! यदि ऐसा है भी तो भी प्रतिशोध की धमकी देने वालों और प्रतिशोध से बचने के लिए सजगता की अपील करने वालों को आप एक तराजू में कैसे तौल सकते हैं? हम सभी जानते हैं कि संघ आदि संगठनों ने बंगलौर जैसे शहरों में पूर्वोत्तर भारतीयों को भय के माहौल में आश्वासन के साथ सड़कों से लेकर रेलवे स्टेशन तक सुरक्षा और खाद्य सहायता उपलब्ध कराने का ही कार्य किया था।
वस्तुतः मुद्दा अवैध बंगलादेशी घुसपैठियों का ही था किन्तु यह राजनैतिक संकीर्णता का एक निंदनीय खेल मात्र है जिसने वर्तमान परिदृश्य को बहाना बनाकर इंटरनेट पर एकजुट होती सामाजिक आलोचक शक्ति पर निशाना साधा है। कॉंग्रेस सरकार तो अपने आलोचकों की जुबान बंद करने के लिए पहले से ही सोशल साइट्स और गूगल से तकरार कर रही थी।
यथार्थ यह है कि इंटरनेट पर मशक्कत करने जैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि यह सहजता से समझा जा सकता है कि करोड़ों लोगों की इंटरनेट पर व्यक्तिगत स्तर पर निगरानी नही की जा सकती। धर्म-विशेष, व्यक्ति-विशेष अथवा समुदाय विशेष के प्रति घृणा अथवा अश्लीलता फैलाने वाली पोस्ट्स के विरुद्ध फेसबुक जैसी साइट्स के पास पहले से ही नियम हैं कि उन्हें आप सीधे रिपोर्ट कर सकते हैं। क्यों नहीं सरकार सीधे लोगों से अपील करती है कि वो इस तरह की सामग्री को जागरूकतापूर्वक रिपोर्ट/ब्लॉक करें.? स्थिति स्पष्ट है कि सरकार की चिंता सामुदायिक सद्भाव को लेकर नहीं अपितु अपने विरूद्ध इंटरनेट के माध्यम से फैल रहे असंतोष को दबाने की है अन्यथा हिन्दू देवी देवताओं व आस्थाओं के खिलाफ न जाने कितनी ही किताबें सरकार से कॉपी-राइट लेकर धड़ल्ले से छप रही है और फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में खुले आम सांप्रदायिक आस्थाओं का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। सरकार और कॉंग्रेस पार्टी जानती है कि 2012 के हालात 1975 से काफी अलग और मीलों दूर हैं। आज बाजारवाद के युग में मीडिया सरकार के लिए चुनौती नहीं है किन्तु सोशल मीडिया के रूप में एक नई चुनौती उभर चुकी है। यह स्पष्ट है कि आज परिस्थियाँ और तकनीक अनुमति नहीं देतीं कि कॉंग्रेस सरकार की अपने विरोधियों का मुंह बंद करने की यह मंशा सफल हो सके किन्तु फिर भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि क्या यह अभिव्यक्ति के संविधान प्रदत्त अधिकारों के विरुद्ध आपातकाल की मानसिकता के अवशेषों का पुनरोदय नहीं है.?
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-वासुदेव त्रिपाठी

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