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यमन, मिस्र, सूडान, लीबिया, यरूशलम, फिलिस्तीन, लेबनान, सोमालिआ, ट्यूनीसिया, अल्जेरिया, नाइजीरिया, कुवैत, बहरीन, कतर, जॉर्डन, इराक, ईरान, टर्की, एम्स्टर्डैम, इंडोनेशिया, मलेशिया, मालदीव, श्रीलंका, पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, मोरक्को, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और भारत! ये विश्व भूगोल के मानचित्र का शाब्दिक चित्रण नहीं बल्कि उन देशों की सूची के कुछ नाम हैं जो इस समय एक फिल्म की आग में जल रहे हैं। फिल्मों में अवास्तविक दुनिया कई काल्पनिक तरीकों से जलती दिखाई जाती है, विशेषकर हॉलीवुड फिल्मों में, किन्तु एक फिल्म के कारण वास्तविक दुनिया जल रही है, क्या यह स्वयं में विचित्र नहीं है?
अमेरिका में सैम बेसाइल नामके किसी व्यक्ति द्वारा इस्लाम पर बनाई गई फिल्म “इनोसेन्स ऑफ मुस्लिम्स” कथित रूप से इस्लाम को कैंसर के रूप में तथा पैगंबर मोहम्मद को व्यभिचारी व हिंसक रूप में चित्रित करती है। इंटरनेट पर फिल्म के सामने आने के बाद सबसे पहले लीबिया के बेंघाजी में हिंसक शुरुआत हुई जिसमें अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले में अमेरिकी राजदूत समेत तीन अन्य अमेरिकी नागरिक मारे गए। इसके बाद से तो हिंसा आव आगजनी का जो दौर समूचे विश्व में प्रारम्भ हुआ है वह थमने का नाम नहीं ले रहा। अब तक इस हिंसा में एक दर्जन से अधिक लोगों की जान जा चुकी है और यह संख्या किसी भी समय कितनी भी अधिक पहुँच सकती है।
“इनोसेन्स ऑफ मुस्लिम्स” फिल्म दो तरीके से इस्लाम के विरुद्ध ठहराई जा रही है; एक तो फिल्म में पैगंबर मोहम्मद को एक अभिनेता द्वारा चित्रित किया गया है जोकि स्वयं में इस्लाम विरोधी है, दूसरा यह कि चित्रण स्वयं में मोहम्मद साहब के व्यक्तित्व को निंदनीय ढंग से प्रस्तुत करता है। निःसन्देह एक विकसित मानव सभ्यता में किसी व्यक्ति विशेष अथवा समुदाय विशेष की आस्थाओं को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए किन्तु दूसरी ओर इस बात से भी नकारा नहीं जा सकता कि एक स्वस्थ सभ्यता में आलोचनाओं व उनकी स्वीकृति के लिए पर्याप्त स्थान होना चाहिए। मोहम्मद साहब का चित्रण निश्चय ही यह मुसलमानों के लिए गैर-इस्लामी हो सकता है किन्तु ईसाइयों यहूदियों अथवा अन्य गैर-मुस्लिमों के लिए मोहम्मद साहब मात्र एक ऐतिहासिक पात्र भी हो सकते हैं जिनका वे चित्रण कर रहे हों! मुसलमान अपनी इस्लामी मान्यताएँ समूचे विश्व पर लादने की जिद कैसे कर सकते हैं.? श्रीराम अथवा कृष्ण को कितने ही लोग हिन्दुओं की मूल आस्था के विपरीत ईश्वर नहीं मानते, इसी देश में बहुसंख्यक हिन्दुओं के बीच ही देश की सरकार उच्चतम न्यायालय मे शपथपत्र देती है कि श्रीराम का कभी कोई अस्तित्व ही नहीं रहा.! क्या मात्र इतने के लिए हिन्दुओं ने लोकतान्त्रिक विरोध के अतिरिक्त दंगे हिंसा आदि का मार्ग अपनाया अथवा उन्हें अपनाना चाहिए था.? इसी प्रकार जीसस क्राइस्ट के सन्दर्भ में ईसाई धर्म की मूल मान्यता है कि वे ईश्वर के इकलौते बेटे थे और मृत्यु के बाद वे पुनः जी उठे थे, किन्तु कितने ही विद्वानों ने इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखा और जीसस के पुनर्जीवित होने को पुस्तकों व डॉक्युमेंट्रीज में सिरे से नकारा है। बहुचर्चित फिल्म “द विंची कोड” में जीसस के सम्पूर्ण जीवन को ही दूसरी दृष्टि से चित्रित किया गया है, क्या बहस अथवा सभ्य विरोध के अतिरिक्त इस्लामी तरीके की प्रतिक्रिया ईसाई जगत में उठी अथवा उठनी चाहिए थी.? निश्चिय ही सर्वप्रथम दोषी वह दुराग्रहवादी मानसिकता है जोकि न केवल स्वयं ही नए दृष्टिकोण को स्वीकारना नहीं चाहती वरन अपनी मानसिकता दूसरों पर भी थोपने का हठ करती है।
दूसरा प्रश्न मोहम्मद साहब के व्यक्तित्व विश्लेषण का है। हमें यहाँ भी वही मूल बात याद रखनी चाहिए कि एक मुस्लिम होकर भले ही आप मोहम्मद साहब को या फिर हिन्दू होकर राम कृष्ण को श्रद्धा के बाहर आकर देखना न चाहते हों किन्तु एक अन्य व्यक्ति के लिए वे एक मात्र ऐतिहासिक अथवा साहित्यिक पात्र भी हो सकते हैं जिनका वह श्रद्धा के चश्मे को उतारकर विश्लेषण करना चाहता हो! हम उससे असहमत हो सकते हैं, हम उसका खण्डन व आलोचना कर सकते हैं किन्तु प्रतिक्रिया के नाम पर हिंसा हत्या का नग्न नृत्य न ही विकसित सभ्यता का द्योतक है और न ही धार्मिक सहनशीलता का परिचायक.! मानवीय मनोविज्ञान को देखते हुए अधिकतम यह प्रायोगिक कहा जा सकता है कि आस्थाओं पर प्रहार से आक्रोशित व उत्तेजित मुस्लिम समाज फिल्म निर्माता की जान का दुश्मन बन जाए किन्तु मात्र इसीलिए कि फिल्म निर्माता अमेरिका में रहता है समूचे विश्व के मुसलमानों का अमेरिका को कट्टर दुश्मन के रूप में देखना, पश्चिमी दूतावासों व कम्पनियों-रेस्टोरेंट्स पर हमला, आम नागरिकों की हत्या सामुदायिक दीवालियेपन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.!
इस घटना से पहले भी डेनमार्क के कार्टूनिस्ट विवाद जैसे और भी उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि यह स्थान विशेष अथवा देश विशेष की चिन्ता नहीं वरन विचारधारा की एक वैश्विक समस्या है। इस बात के प्रमाण है ऑस्ट्रेलिया व पश्चिमी देशों के मुसलमान.! वर्तमान विरोधों की कड़ी में पहली भयावह तस्वीर अफ़ग़ानिस्तान व दूसरी ऑस्ट्रेलिया के सिडनी की है जोकि स्पष्ट करती हैं कि किस तरह शिक्षित समृद्ध माँ-बाप रूढ़ मानसिकता के अंधे गड्ढे में अपने बच्चों को धकेल रहे हैं। अभी ऑस्ट्रेलिया में ही 8साल की एक बच्ची ने हजारों की भीड़ में “Muslims love jihad” नाम से भाषण दिया और मुसलमानों से काफिरों के खिलाफ जिहाद की अपील की। अफगानिस्तान व ऑस्ट्रेलिया के इन बच्चों की शिक्षा समृद्धि में भले ही महान अन्तर हो किन्तु मानसिकता, विचारधारा व संस्कार एक ही है। भारतीय परिदृश्य में समस्या दोगुनी गम्भीर है क्योंकि जिस तरह इस्लामी देशों की तर्ज पर चेन्नई, हैदराबाद, कश्मीर व श्रीनगर में फिल्म के तथाकथित विरोध में प्रदर्शन हुए और जिस तरह का पिछले डेन्मार्क कार्टून जैसे मामलों पर भारतीय मुसलमानों का इतिहास रहा है वह मध्यकालीन मानसिकता का वैसा ही संकुचित स्वरूप है जैसा कि अरब से अफ़ग़ानिस्तान तक समूचे इस्लामी जगत में देखने को मिलता है। अगस्त की मुम्बई के आजाद मैदान व उसके अनुसरण में देश भर में हुई हिंसक इस्लामी प्रतिक्रिया का उदाहरण भी अभी ताजा है। एक अन्य उदाहरण उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद में 14 सितंबर को हुए दंगे का है, दंगा मात्र इसलिए भड़का क्योंकि गाज़ियाबाद के एक छोटे से स्टेशन डासना पर एक मुसलमान को कुरान का फटा हुआ पेज पड़ा मिला था। प्रतिक्रिया में इकट्ठा हुई भीड़ ने 80 वाहनों समेत अन्य जनसंपत्ति को तोड़ा फोड़ा व आग लगा दी तथा पुलिस स्टेशन पर हमला बोल दिया। यह असहनशीलता की पराकाष्ठा है। कल्पना कीजिये यदि कुरान के स्थान किसी को रामायण अथवा धम्मपद के फटे पन्ने मिले होते, अधिक होता 10-20 लोगों की आलोचना सुनने को मिल जाती.!
धर्म एक सतत शोध व विकास की परम्परा है, यहाँ तक कि सदियों तक रूढ़ रही ईसाइयत, जिसने इस्लाम की ही तरह ईशनिन्दा के नाम पर न जाने कितने स्त्री-पुरुषों को निर्मम मौत मार डाला, आज अपेक्षाकृत सहनशील रूप में हमारे सामने है। पश्चिमी देशों में पदार्थवादी नास्तिक रोज न जाने कितने ही तरीकों से जीसस क्राइस्ट का अपमान करते रहते हैं। हिन्दू देवी देवताओं का अपमान, बहुधा ईसाइयों द्वारा ही, आए दिन होता रहता है, कभी चप्पलों अथवा अन्तःवस्त्रों पर उनकी फोटो बनाकर, कभी देवी-देवताओं के नाम से शराब का ब्राण्ड निकालकर, तो कभी विडियो गेम्स में हिन्दू देवी का अभद्र चित्रण कर.! “सीता सिंग्स ब्लू” नामक फिल्म भी बनाई गई और नेट पर खुले रूप से डाली गई जिसमें माँ सीता का अभद्र चित्रण किया गया था, कुछ एक ऑनलाइन विरोध याचिका आदि मर्यादित विरोध के अतिरिक्त हिन्दुओं ने कितनी बार पश्चिमी देशों के दूतावासों अथवा रेस्टोरेंट्स पर हमला किया अथवा पूरे अमेरिका से ही दुश्मनी ठानकर बैठ गए.? बड़ा ही रोचक है कि कथित इस्लाम विरोधी फिल्म के आने के बाद इस्लामी आस्था का शोर मचाने वाले कई इस्लामी लेखक ब्लॉगर वे हैं जो स्वयं हिन्दू धर्म व धर्मग्रंथों को नीचा दिखाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते रहते हैं। किन्तु कुरान हदीस आदि में युद्धबंदी औरतों को रखैल बनाने, बेंच देने, काफिरों के खिलाफ जिहाद जैसे क़ानूनों को आज भी नकारने का साहस इनमें नहीं होता.!
वस्तुतः धर्म जीवन का सम्पूर्ण दर्शन है जहां मौलिक सिद्धान्त व मौलिक दर्शन तो अपरिवर्तित रह सकता है जैसे प्रकृति के सिद्धान्त लाखों वर्षों से वैसे ही हैं किन्तु जीवन व्यवहार के कानून सदियों तक एक जैसे नहीं रह सकते क्योंकि प्रत्येक सदी नयी होती है, प्रत्येक वर्ष अलग होता है। अतः धर्म की आलोचना समालोचना धर्म की प्रथम आवश्यकता है जोकि अंधश्रद्धा से नहीं धैर्य व क्षमा से संभव है। यही कारण है कि “धृतिःक्षमा दमोंsस्त्येम्…” के भारतीय दर्शन में धैर्य को धर्म का पहला व क्षमा को दूसरा लक्षण बताया गया है। यही बात मुस्लिम बुद्धिजीवियों को मुस्लिम समाज को समझाने की महती आवश्यकता है ताकि पुराने रूढ़िवादी इस्लाम से निकलकर आधुनिक समयानुकूल इस्लाम की ओर बढ़ा जा सके और एक सहनशील शान्त सुखी इस्लामी जगत की स्थापना हो सके।
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-वासुदेव त्रिपाठी
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