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प्राचीन धर्मग्रंथों के अधिकांश विवेचन कई लोगों को काल्पनिक कथाएँ (fairy tales) सी लगती हैं! महाभारत के भीम हों अथवा रामायण आदि में कई वीरों का उल्लेख, कैसे कैसे अप्रायोगिक कथानक लिखे हैं.! किन्तु हमें जो लगता है वह हमारी सोच का परिणाम है, वही यथार्थ हो ऐसा आवश्यक तो नहीं.! जो हमारे लिए असंभव व अप्रायोगिक है वह तो आज भी देखने को मिल जाता है।
ऐसे ही एक अप्रायोगिक से लगने वाले आश्चर्य के प्रमाण थे आंध्र प्रदेश के वीरघट्टम में अप्रैल 1882 में जन्में राममूर्ती। राममूर्ती की पढ़ाई लिखाई में बचपन से कोई रुचि नहीं थी अतः वे एक दिन घर से भाग गए। कुछ दिनों बाद वीरघट्टम जब वापस आए तो शेर के एक बच्चे के साथ। उनकी निडरता व साहस देखकर लोग हतप्रभ रह गए। राममूर्ती ने बड़े होकर पहलवानी सीखी और एक स्कूल मे शारीरिक शिक्षक बन गए। राममूर्ती के शरीर में इतना बल था कि वे अपने सीने पर लिपटी लोहे की जंजीर को गहरी सांस लेकर सीना फुलाकर तोड़ देते थे। उनके कन्धों पर दोनों ओर बंधी लोहे की जंजीरों से दोनों ओर दो कार बांध दी जाती थीं, दोनों कारों को ड्राईवर फुल एक्सिलेटर से चलाते थे किन्तु कोई भी कार एक इंच भी नहीं खिसक पाती थी।
तत्कालीन वाइसरॉय लॉर्ड मिन्टो ने एक बार राममूर्ती को चुनौती दी और खुद एक कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया जिसे पीछे से राममूर्ती ने पकड़ रखा था, पूरी मेहनत के बाद भी मिन्टो गाड़ी को एक इंच भी नहीं खिसका सका। इसी तरह एक बार राममूर्ती ने अपने सीने पर हाथी को खड़ा कर लिया और पाँच मिनट तक खड़ा किए रहे। इस घटना ने सभी को हतप्रभ कर दिया। पंडित मदन मोहन मालवीय ने उन्हें भारत से बाहर अपने प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया व सहायता प्रदान की। स्पेन में उन्होने एक सांड को सींग पकड़कर उछालकर फेंक दिया था हाँलाकि उन्हें सांड-युद्ध (Bull Fight) का कोई अनुभव नहीं था जोकि स्पेन का लोकप्रिय खेल है। वे लंदन भी गए, वहाँ उनके बल प्रदर्शन से चकित होकर किंग जॉर्ज और क्वीन मेरी ने “इंडियन हरकुलिस” की उपाधि प्रदान की। राममूर्ती को एक बार घुटने की सर्जरी करवानी पड़ी, उन्होने डॉक्टर को एनेस्थीसिया लेने से मना कर दिया और पूरा ऑप्रेशन यूं ही करवा डाला। बाद में उन्होने बताया कि यह योग की शक्ति है कि वे दर्द को जीत सकते हैं।
राममूर्ती एक बलवान ही नहीं महान दानवीर भी थे, उन्होने अपने प्रदर्शनों से करोड़ों रुपये कमाए किन्तु यह राशि गरीबों की सेवा में तथा स्वतन्त्रता संग्राम में दान कर दी। “कलियुग के भीम” के नाम से जाने जाने वाले राममूर्ती एक उसी प्रकार एक महा बलवान, उदार हृदय व महान स्वाधीनता सेनानी थे जिस प्रकार हमारे धर्म ग्रन्थों में आदर्श वीरों का उल्लेख मिलता है।
वस्तुतः प्रकृति का विस्तार अनन्त है, प्रकृति ने पुत्र मानव को अन्नत सामर्थ्य से विभूषित किया है, महत्व यह रखता है कि मनुष्य इस अनन्त शक्ति को कितना पहचान पाता है! भारतीय ऋषियों ने प्रकृति से आत्मा तक गंभीर तात्विक शोध किया, ऋषियों का ज्ञान आज भी महान वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा व शोध का विषय बना हुआ है। अल्बर्ट आइन्सटाइन से लेकर एर्विन श्रोडिंगर तक न जाने कितने ही महान वैज्ञानिकों ने भारतीय ऋषियों के सनातन विज्ञान का सानिध्य लिया और उसकी महत्ता के गीत गाए। आज भी नासा संस्कृत से लेकर ज्योतिष तक अपने यहाँ शोध विभाग बनाकर शोध कर रहा है। जर्मनी संस्कृत पर शोध का केन्द्र है। किन्तु उपनिवेशवाद के षड्यंत्र के शिकार हम भारतीय मानते ही नहीं वरन सीना ठोंक कर कहते भी हैं कि हमारे पूर्वज जंगली थे और अब हम विकसित हुए हैं। एल्विन वारीयर, जिसने भारत आकर आदिवासियों पर शोध किया, की आत्मकथा पर आधारित रामचन्द्र गुहा की पुस्तक “सैवेजिंग द सिविलाइज्ड” बताती है कि वास्तव में कौन विकसित है और कौन जंगली, वो अथवा हम.! प्राचीन भारतीय सभ्य समाज की कल्पना तो आज असंभव तुल्य ही है।
फिलहाल यह विषय गंभीर है, मेरे अब तक के ज्ञान में जो है वह भी नहीं लिखा जा सकता। ज्ञान और ढोंग को स्पष्ट करने के लिए एक विशाल ग्रंथ लेखन करना होगा, लेख नहीं। अभी दो दिन पहले ही कॉलेज में अपने एक सर के केबिन में बैठकर कुछ चर्चा कर रहा था, उन्होने भारतीय मूल के एक अमेरिकी वैज्ञानिक के विषय बताया जो अपने पिता की मृत्यु पर श्राद्ध के लिए भारत आये थे। श्राद्ध के एक विधान विशेष (जिसे कि मेरे सर स्पष्ट नहीं बता पाये) को करते समय कुंभों (घड़ों) की स्थिति देखकर वो वैज्ञानिक महोदय आश्चर्य चकित रह गए, यह उनकी विज्ञान के किसी नियम से अद्भुत साम्य में था। (यद्यपि मैं विज्ञान व भारतीय कर्मकाण्ड दोनों का संक्षिप्त ज्ञान रखता हूँ किन्तु जिन सर से मेरी चर्चा हो रही थी उनके लिए दोनों ही विषय अपने नहीं थे अतः मैं अच्छे से समझ नहीं सका, बाद में आरिजिनल पेपर लेकर ही संभवतः समझ सकूँ)। सत्य नष्ट भी हुआ है और भ्रष्ट भी! नालंदा जैसे महान विश्वविद्यालय व प्राचीन ग्रन्थ जल जाने व ज्ञान की सनातन श्रंखला टूट जाने से परम्पराओं की वैज्ञानिकता का ज्ञान लुप्त हो गया तथा पाखण्ड का संक्रमण फैल गया। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम अपनी समस्त परम्पराओं व विरासतों को, जो आज हमें समझ नहीं आ रहीं, पाखण्ड, ढोंग, पोपलीला कहकर अपने आपको बुद्धिजीवी होने का भ्रम पाले रहें। स्वयं पर विश्वास व शोध की आवश्यकता है भविष्य में भारतीय अस्तित्व को बचाए रखने के लिए! असतर्क उदासीनों के घर ही चोरी होती है।
बुद्धि की सार्थकता तभी है जब आप ज्ञान में विश्वास करें न कि अपने विश्वास को अपना ज्ञान मान लें। ज्ञान शोध का विषय है, शोध धैर्य का विषय है और धैर्य धनात्मक सोच व स्वीकृति का विषय है। खण्डनवादी वैज्ञानिक अथवा बुद्धिजीवी नहीं हो सकता, जैसा कि बहुधा लोग सीमित ज्ञान व सोच की सीमाओं में स्वयं को समझते हैं। क्वांटम फ़िज़िक्स के समय में यदि आप दृश्य को ही प्रमाण मनाने का हठ करें और इसे ही वैज्ञानिक समझें तो यह हास्यास्पद है।
फिलहाल यहाँ यह लेख उस महान व्यक्तित्व राममूर्ती पर ही केन्द्रित है जो उन विस्मृत स्वाधीनता संग्राम सेनानियों में से है जिन्हें हम नहीं जानते। कभी यह जानकारी मुझे “द हिन्दू” के माध्यम से मिली थी। भविष्य में प्राचीन भारत पर शोध का और अवसर मिला तो संभव है मेरे कोश में कुछ और वृद्धि हो सके।
योगशक्ति व त्यागशक्ति की प्रतिमूर्ति राममूर्ती जैसे व्यक्तित्व को हृदयेन नमन।
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-वासुदेव त्रिपाठी
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