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नवम्बर 2011 के असफल प्रयास के लगभग 10 महीनों बाद सितम्बर 2012 में कॉंग्रेस सरकार ने देश के रीटेल बाजार को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल ही दिया। इसके बाद से एफ़डीआई पर पुनः एक बार देशव्यापी बहस प्रारम्भ हो गयी है। अर्थशास्त्र का मुझे विशेष ज्ञान नहीं है किन्तु दो दिनों पूर्व वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के टाइम्स ऑफ इण्डिया में एक लेख ने मुझे उत्प्रेरित किया कि मैं इस विषय पर कुछ लिखूँ! जब केन्द्रीय मंत्री को सरकारी नीति पर पढ़ते हुए आपको पहली ही बार में दावों में अनोखा खोखलापन दिखे तो ऐसा उत्प्रेरण नितांत स्वाभाविक है, अतः मैं सप्ताहांत की प्रतीक्षा कर रहा था कि लिखने के लिए समय मिल सके।
कपिल सिब्बल अपने लेख का प्रारम्भ इस बात से करते हैं कि पूंजी किसी भी देश के विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है और हमारी घरेलू पूंजी हमारी आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त है अतः हमें इन्फ्रास्ट्रक्चर, उत्पाद गतिविधियों एवं सेवा क्षेत्र के लिए विदेशी पूंजी की आवश्यकता है। कपिल सिब्बल आगे लिखते हैं कि रीटेल में एफ़डीआई से दो बातें होंगी- एक तो निवेश के लिए तरसते इस क्षेत्र में पूंजी का प्रवाह होगा, दूसरा तकनीकी समाधान व कार्य कुशलता के रास्ते खुलेंगे।
धरातल पर कपिल सिब्बल के तर्क परखें तो सच कुछ और दिखता है। भारतीय खुदरा बाजार पूंजी के लिए तरसते बाज़ारों में से नहीं वरन ग्लोबल रीटेल डेव्लपमेंट इंडेक्स 2012 में विश्व के टॉप 30 उभरते खुदरा बाज़ारों में पांचवें स्थान पर है। सिब्बल का दूसरा तर्क कि एफ़डीआई से तकनीक के रास्ते खुलेंगे एक बे सिर पैर की बहानेबाजी है। भारतीय खुदरा बाजार को ऐसी किसी भी अन्तरिक्ष तकनीक की आवश्यकता नहीं है जो भारत के पास नहीं है। कम्प्युटर व सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत विश्व में नेतृत्व देने वाले देशों में से है, कृषि व उत्पादन के लिए भी आवश्यक प्रत्येक तकनीक भी भारत के पास है। कृषि में भी तकनीक का विस्तृत प्रयोग हो रहा है तथा आज उत्पादन कोई समस्या नहीं है। आवश्यकता है किसान व व्यापारी वर्ग के और अधिक जागरूक व शिक्षित होने की जोकि सरकार की नीतियों व प्रयासों से ही संभव है विदेशी कंपनियों से नहीं।
वस्तुतः सरकार भ्रम की स्थिति पैदा करना चाहती है। सरकार का बड़ा तर्क है कि रिटेल में एफ़डीआई का मार्ग खुलने पर विदेशी कम्पनियाँ इनफ्रास्ट्रक्चर का विकास करेंगी, कम्पनियों को निवेश राशि का 50% तीन वर्ष में बैक-एंड-इन्फ्रास्ट्रक्चर में खर्च करना होगा। यथार्थ यह है कि यह तर्क शब्दों का घालमेल मात्र है है। बैक-एंड-इन्फ्रास्ट्रक्चर का सीधा मतलब कम्पनियों द्वारा पैकेजिंग, वितरण, डिज़ाइन सुधार व संग्रहण से है जोकि कम्पनियों की अपनी निजी आवश्यकता होगी। जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर की आवश्यकता किसान व आम आदमी को है उसमें इन कम्पनियों का कोई योगदान नहीं होने वाला क्योंकि विदेशी कम्पनियाँ यहाँ मुनाफे के लिए आएंगी समाज सेवा के लिए नहीं! कहा जा रहा है कि विदेशी कम्पनियाँ भंडारण की व्यवस्था दुरुस्त करेंगी क्योंकि भारत में आज भी काफी खाद्यान्न रख-रखाव के अभाव में सड़ जाता है। किन्तु प्रश्न यह है कि भारत की लगभग 1.6 trillion डॉलर की जीडीपी में 14-15% की भागीदारी रखने वाले कृषि क्षेत्र के लिए इस देश की सरकार पैदा होते अनाज आदि के भंडारण की व्यवस्था में क्यों असमर्थ है और कुछ billion का निवेश करने वाली कम्पनियाँ इस पूरी समस्या का निराकरण कैसे करेंगी.? विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार आने वाले एक दशक में करीब 15-20 billion डॉलर का ही कुल निवेश भारत के खुदरा बाजार में होगा। स्वाभाविक है कम्पनियाँ अपनी आवश्यकता भर भंडारण ही करेंगी, इससे हजारों लाखों टन सड़ रहे अनाज की समस्या का निदान नहीं होने वाला। इसके अतिरिक्त सरकार को यह भी बताना चाहिए कि जब तक विदेशी कम्पनियों 5-10 वर्ष लगेंगे तब तक क्या प्रतिवर्ष हजारों टन खाद्यान्न सड़ता रहेगा.?
कपिल सिब्बल आगे लिखते हैं कि इन बड़ी कम्पनियों को 30% समान घरेलू उद्यमियों से खरीदने होगा जिससे घरेलू उत्पादन क्षमता बढ़ेगी व रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। वास्तव में यह तर्क उतना ही खोखला है जितना कि इस पर पॉलिश की गई है। सीधी सी बात है कि कम्पनियाँ हर एक समान विदेशों से खरीदकर नहीं लाएँगी अतः 30% तो उनकी न्यूनतम आवश्यकता होगी जोकि वो यहाँ से खरीदेंगी, विशेषकर तब जब इस तीस प्रतिशत में खाद्य सामाग्री भी सम्मिलित है। बस अंतर इतना आएगा कि अभी जो समान छोटी-छोटी देशी दुकानों से होकर बिकता है वही बाद में बड़े विदेशी स्टोर्स खरीदेंगे और लौटकर ग्राहकों को बेचेंगे। वास्तव में मात्र 30% का प्रावधान प्रतिबंध न होकर कम्पनियों के लिए छूट है, खाद्य पदार्थों आदि को छोडकर शेष चीन का सस्ता माल बाजार मे और भी तेजी से भर जाएगा और विज्ञापन की ताकत से उत्कृष्ट श्रेणी में बिकेगा, फलस्वरूप भारतीय उद्योग और तेजी से चौपट होंगे। चीन वाल-मार्ट को सालाना 18 billion डॉलर का माल बेंचता है।
कपिल सिब्बल तीन बड़े तर्कों का खंडन करते हैं- पहला खुदरा क्षेत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, दूसरा छोटी किराना दुकाने बंद हो जाएंगी और तीसरा वाल मार्ट जैसी कम्पनियाँ बाजार के बड़े हिस्से पर कब्जा जमा लेंगी। सिब्बल का पहला तर्क है कि वाल मार्ट जैसी कम्पनियों को केवल बड़े शहरों में स्टोर खोलने की अनुमति है जहां जमीन बहुत महंगी है अतः कम्पनियों के लिए जगह जगह जमीन खरीदना व स्टोर खोलना मुमकिन नहीं होगा। उनका दूसरा तर्क है कि दिल्ली जैसी जगहों मे बहुत कम लोग ऐसे हैं जो बड़े घरों में रहते हैं और उनके पास रेफ्रीजरेशन की सुविधा हो अतः आम आदमी इन स्टोर्स में न जाकर किराना दुकानों से ही समान खरीदेगा। सिब्बल के इस तर्क से ऐसा लगता है जैसे वाल मार्ट व टेस्को जैसी कम्पनियाँ भारत में अपने स्टोर्स खोलकर बैठकर मक्खी मारेंगी और इन कम्पनियों के आने से विकास व रोजगार के जो बड़े-बड़े दावे मनमोहन सरकार कर रही है वो ये कम्पनियां खैरात में देंगी.! दिल्ली में महंगी जमीन का तर्क देने से पहले कपिल सिब्बल ने न जाने क्यों नहीं सोचा कि किराए पर बड़ी-बड़ी बिल्डिंग भी मिलती हैं! वाल मार्ट का रिवेन्यू 450 billion डॉलर है जितनी कि भारत के समूचे रिटेल बाजार की कीमत है। सिब्बल से यह भी अपेक्षा नहीं है कि उन्हें वाल-मार्ट की इस हैसियत का अंदाजा नहीं होगा! ये कम्पनियाँ सुबह 10 रुपये की पूंजी लगाकर शाम को 12 रुपए पैदा करने नहीं आतीं, उनकी योजना दशकों को ध्यान में रखकर बनती है। वाल-मार्ट छोटे प्रतियोगियों को बाजार से बाहर करने के लिए अपने माल को शुरुआत में बेहद कम दामों पर बेचने के लिए कुख्यात है जिससे लगभग एक दशक में आधे छोटे व्यापारी बाजार से साफ हो जाते हैं। इसे predatory pricing कहते हैं और इसके लिए वाल मार्ट को कई बार “विस्कासिन डिपार्टमेंट ऑफ एग्रिकल्चर, ट्रेड व कंज़्यूमर प्रोटेक्शन” तथा “क्रेस्ट फूड्स” जैसी संस्थाओं व कम्पनियों द्वारा कोर्ट तक में घसीटा जा चुका है। सिब्बल का यह तर्क कि भारतीय छोटे व्यापारी वाल-मार्ट आदि से प्रतियोगिता करेंगे जमीन पर कहीं नहीं ठहरता। अमेरिका में भले ही अन्य उद्यमी वाल-मार्ट का थोड़ा बहुत सामना कर रहे हों किन्तु भारत के छोटे छोटे परंपरागत व्यापारियों के लिए इन कम्पनियों की पूंजी शक्ति, विज्ञापन शक्ति व लॉबींग से लड़ पाना बिलकुल भी संभव नहीं होगा। सरकार की शर्त कि विदेशी कम्पनियाँ 10 लाख की आबादी वाले बड़े शहरों तक सीमित रहेंगी, चौतरफा विरोध के बींच केवल शुरुआती छलावा है क्योंकि स्वाभाविक ही ये कम्पनियाँ पहले बड़े शहरों से ही शुरुआत करेंगी। एक बार स्थापित होने के बाद जब उन्हें विस्तार की आवश्यकता होगी तब नियम कानून आसानी से बदल जाएंगे। अन्यथा प्रश्न यह है कि यदि वास्तव में वाल-मार्ट से व्यापार किसान व इन्फ्रास्ट्रक्चर का इतना ही भला होने वाला है तो सरकार इसे केवल बड़े शहरों तक ही सीमित क्यों रख रही है?
मनमोहन सरकार कह रही है कि वालमार्ट आदि के आने से अगले एक दशक में एक करोड़ रोजगार पैदा होंगे। यह एक कोरी गप्प है। 1962 में स्थापित वाल-मार्ट में आज विश्व के 15 देशों में लगभग 21 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं। वर्ष 2012 के अनुसार वाल-मार्ट का कुल व्यापार लगभग 450 billion डॉलर है। यदि 450 billion डॉलर के व्यापार से 15 देशों में मात्र 21 लाख रोजगार पा रहे हैं तो एक दशक में अकेले भारत में 15-20 billion डॉलर के निवेश से 1 करोड़ रोजगार कैसे पैदा हो जाएंगे.? कुछ अर्थशास्त्री अनोखा तर्क देते हैं कि अमेरिका में वाल-मार्ट के करीब 14 लाख कर्मचारी हैं जबकि अमेरिका की जनसंख्या 31 करोड़ है, इस हिसाब से 1.2 अरब की जनसंख्या वाले भारत में यदि वाल-मार्ट 56 लाख रोजगार पैदा कर सकती है। बड़े अर्थशास्त्री होने के बाद भी ये लोग भूल जाते हैं कि रोजगार जनसंख्या बढ्ने से नहीं अर्थव्यवस्था से पैदा होते हैं। वाल-मार्ट का अमेरिका में 258 billion डॉलर का व्यापार है, अर्थात यदि वाल-मार्ट भारत 450 बिल्यन डॉलर के खुदरा बाजार से सबकी सफाई करके एकाधिकार कर ले तो भी इससे अधिकतम 25 लाख लोगों को ही रोजगार मिलेगा जहां अभी 4.5 करोड़ लोग अपनी जीविका चला रहे हैं। दूसरी तरफ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि भारत के 450 billion डॉलर की अपेक्षा अमेरिका का रीटेल मार्केट 4.7 trillion डॉलर का है। अमेरिका में ही वाल-मार्ट के खिलाफ लगातार प्रदर्शन होते रहते हैं। वाल-मार्ट के कर्मचारी कम वेतन व अनुचित वार्ताव के विरुद्ध लगातार कंपनी का विरोध करते रहते हैं। लॉस एंजिल्स एलायन्स फॉर न्यू इकॉनमी ने 2006 की रिपोर्ट मे कहा था कि वाल-मार्ट का एक कर्मचारी जीवन यापन की आवश्यकता से वार्षिक 10,000 डॉलर मिलते हैं। अमेरिका में वाल-मार्ट के अधिकांश कर्मचारी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। पेंसिल्वानिया स्टेट यूनिवर्सिटी के अध्ययन के अनुसार अमेरिका में जिन प्रान्तों में वाल-मार्ट स्टोर्स हैं वहाँ गरीबी अधिक बढ़ी है।
भारत में एफ़डीआई को किसानों के हित में प्रचारित करने के प्रयास इस तर्क के साथ किए जा रहे हैं कि बिचौलियों के खत्म होने से किसानों को अधिक मूल्य मिलेगा। जबकि सच यह है कि बिचौलिये तो बेरोजगार हो जाएंगे लेकिन किसानों को बाद में कोई लाभ नहीं होगा। वाल-मार्ट जैसी बड़ी कम्पनियाँ बाजार पर पकड़ बनाने के बाद आपूर्तिकर्ताओं को कम दामों पर माल बेचने के लिए मजबूर करती हैं। अमेरिका में किसानों को अमेरीकन सरकार की ओर मिलने वाली मोटी सब्सिडि पर आश्रित रहना पड़ता है हाँलाकि भारत में किसानों की सब्सिडि के खिलाफ अमेरिका व बड़ी कम्पनियाँ लगातार दबाब बनाने का प्रयास करते रहते हैं।
वस्तुतः आर्थिक सुधारों का यह चक्र दोहरे मानकों पर आधारिक है। वाल-मार्ट जैसी कम्पनियाँ विकासशील बाज़ारों में घुसने के लिए वैश्वीकरण की दुहाई देती हैं जबकि अमेरिका में यही वाल-मार्ट “बाइ अमेरीकन” अर्थात “अमेरीकन समान ख़रीदों” के अभियान चलाती हैं। हमें धरातलीय सत्य को समझना होगा! न ही हमारा ढांचा वाल-मार्ट जैसे वैश्विक दैत्यों के अनुकूल है और न हमारा तन्त्र ही! सबसे महत्वपूर्ण किसी देश का वातावरण व संस्कृति होती है व भारत का वातावरण हमें हर प्रकार की आवश्यकतायें व स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सामाग्री समय व ऋतु के अनुसार उपलब्ध कराता है तथा हमारी संस्कृति हमें सब्जी वाले भइया व किराने वाले चाचा से हर दिन मिलाकर समाज व संस्कारों को सुदृढ़ करती है। आवश्यकता है हम कृतिम परिवेश व बाजारवादी सम्बन्धों के स्थान पर अपने उसी प्राकृतिक वातावरण एवं सामंजस्यवादी संस्कृति को नई दिशा दें।
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-वासुदेव त्रिपाठी
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