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केजरीवाल का राजनैतिक भविष्य

RASHTRA BHAW
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अरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक मंशाओं के संकेत काफी पहले से मिलने लगे थे जोकि जुलाई 2012 के जन्तर-मन्तर पर अनशन के आते आते सामने आ गईं। अन्ना के विशुद्ध जन-आंदोलन के माध्यम से राजनीति की जमीन तैयार करना एक सरल काम बिलकुल नहीं था क्योंकि अन्ना की छवि व उद्देश्य पूर्णतयः अराजनैतिक थे, किन्तु केजरीवाल व उनके उनके सहयोगियों ने इसमें काफी हद तक सफलता पायी भले ही बाद में अन्ना को निराश होकर केजरीवाल टीम को बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा हो। अब जबकि केजरीवाल टीम पार्टी व पार्टी के एजेंडा की भी घोषणा कर राजनीति की राह उन्होने अपने अंदाज में पकड़ चुकी है यह प्रश्न जनमानस में उठता है कि केजरीवाल की पार्टी का भविष्य व भारतीय राजनीति पर इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा?
केजरीवाल की अभी तक अनाम पार्टी पर चर्चा के पहले हमें वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य के साथ-साथ राजनीति के मौलिक नियम व आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखना होगा। भारत में कोई भी राजनैतिक दल पहले क्षेत्रीय स्तर पर ही उभरता है तथा अधिकांश नए दलों के मुद्दे भी क्षेत्रीय भी होते हैं। कॉंग्रेस व भाजपा को छोडकर शेष राष्ट्रीय दल केवल नाम के राष्ट्रीय दल हैं। भारत का दूसरा सबसे बड़ा राजनैतिक दल भाजपा भी दक्षिण व पूर्व में लगभग शून्य की स्थिति में है, बसपा कहने को राष्ट्रीय दल है किन्तु उत्तर प्रदेश के बाहर उसका कोई खास अस्तित्व नहीं जबकि भाजपा व बसपा ने क्रमशः हिन्दुत्व एवं दलितवाद के नाम पर राजनीति प्रारम्भ की थी जोकि स्वयं में प्रभावी राष्ट्रीय मुद्दे थे। केजरीवाल के पास बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार का है किन्तु इसके अतिरिक्त उनके पास कोई और मुद्दा भी नहीं है जबकि जनता से दिल्ली की कुर्सी मांगने से पहले आपको गाँव से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों तक अपना दृष्टिकोण व रणनीति स्पष्ट करनी होती है। केजरीवाल भ्रष्टाचार के अपने इकलौते प्रभावी मुद्दे पर अपना एकाधिकार जताने का प्रयास कर रहे हैं और उन्हें अन्ना से काफी निकटता से जुड़े रहने का लाभ भी मीडिया कवरेज के रूप में मिल रहा है। किन्तु सच यह है कि आज कॉंग्रेस नीत यूपीए सरकार में एक के बाद एक कई बड़े घोटाले उजागर होने के बाद भले ही देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध वातावरण बना हुआ है किन्तु इसमें केजरीवाल का कोई विशेष योगदान हो ऐसा नहीं है। अन्ना ने भी खुद को केजरीवाल से न सिर्फ अलग ही कर लिया है वरन उनकी राजनैतिक इच्छाओं पर खेद भी जताया है। टीम केजरीवाल अब अन्ना के नाम का किसी तरह उपयोग नहीं कर सकती।
भ्रष्टाचार के भंडाफोड़ का विशेष प्रारम्भ, जिससे कि देश में एक आक्रोश पनपा, 2G मामले से हुआ और उसका श्रेय निश्चित रूप से सुब्रमण्यम स्वामी को जाता है। अन्य बड़े घोटालों को उजागर करने में मीडिया, कैग व विपक्षी दलों की ही विशेष भूमिका रही। राष्ट्रमंडल घोटालों को सामने लाने के लिए निश्चित रूप से मीडिया की सराहना करनी होगी जबकि कोयला घोटाले को सबसे पहले भाजपा के एक सांसद ने उठाया था और उसकी परतें उधेड़ने में कैग की निष्पक्षता निर्णायक रही। चूंकि जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर सरकार का निर्णायक पतन देखना चाहती थी किन्तु वर्तमान राजनीति व व्यवस्था में ऐसा संभव नहीं हो सका अतः उसका सीधा प्रभाव मुख्य विपक्षी दल होने के नाते भाजपा पर पड़ा और मीडिया सहित जनता के भी एक वर्ग में उसकी छवि कमजोर विपक्षी दल की बन गई। केजरीवाल इस माहौल का लाभ उठाने के प्रयास में आरोप की राजनीति कर रहे हैं। कोयला घोटाले पर संसद में आक्रामक भाजपा के सामने स्वयं कॉंग्रेस रक्षात्मक एवं दबाब की स्थिति में थी किन्तु केजरीवाल अपने कुछ सौ समर्थकों के साथ प्रदर्शन कर रहे थे कि “भाजपा कॉंग्रेस भाई-भाई, दोनों ने मिलकर मलाई खाई”। तभी से केजरीवाल अपने आप को भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक मात्र विकल्प दिखाने के प्रयास में मुद्दों को हाईजैक करने के लिए संघर्ष कर हैं। रॉबर्ट वाड्रा मामले में केजरीवाल अपने आप को क्रूसेडर के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं जबकि वाड्रा पर डीएलएफ़ सहित अन्य कई गंभीर आरोप भी काफी समय पहले ही सुब्रमण्यम स्वामी ने लगाए थे, हाँलाकि तब मीडिया ने उन्हें इतना महत्व नहीं दिया था। मुद्दों को हथियाने की व्यग्रता के चलते “आज तक” द्वारा “ऑपरेशन धृतराष्ट्र” चलाकर जैसे ही सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट में घोटाले के भंडाफोड़ किया गया केजरीवाल टीम वाड्रा मामले को छोडकर सलमान खुर्शीद के पीछे लग गई। इसी तरह बिजली के मुद्दे पर जिस तरह केजरीवाल नियम कानून को ताक पर रखकर दो घरों में जाकर कनैक्शन जोड़ आए जोकि बिल न देने के कारण काट दिये गए थे वो भी लोकप्रियता की राजनीति को ही स्पष्ट करता है। केजरीवाल अपने साथ मीडिया को ले जाना भी नहीं भूले। राजनीति निश्चित रूप से कोई कोई बुरी बात नहीं है किन्तु इस तरह के राजनैतिक हथकंडे कहीं न कहीं आदर्शों के खोखलेपन को ही दर्शाते हैं। यह खोखलापन पहली बार तभी सामने आ गया था जब केजरीवाल अपनी राजनैतिक मंशा को अन्ना के सर डाल रहे थे व यहाँ तक कह दिया था कि अन्ना मना करें तो हम अपना निर्णय तुरन्त बदल देंगे, जब अन्ना ने खुलकर मना किया तो केजरीवाल ने अन्ना को चुपचाप किनारे कर दिया। बयान बदलना आज की राजनीति की पहली सीख है।
भ्रष्टाचार के अतिरिक्त यदि केजरीवाल की पार्टी के अन्य मुद्दों पर गौर करें जो 2 अक्टूबर को पार्टी की घोषणा करते समय सामने रखे गए थे उनमें कुछ अवास्तविक वायदों के अतिरिक्त कुछ खास नहीं है। उनका कहना है कि अपनी पार्टी के प्रत्याशियों का चुनाव वे स्वयं नहीं बल्कि जनता करेगी। क्या केजरीवाल चुनाव से पहले अपने प्रत्याशियों को टिकट देने के लिए एक और चुनाव कराएंगे? अथवा कोई अन्य प्रयोगिक व पारदर्शी रास्ता भी है? पार्टी के ऐसे ही कुछ अन्य वायदे हैं जिनमें आदर्शों का अवास्तविक चित्रण करने का प्रयास किया गया है। कुछ अन्य मुद्दों पर केजरीवाल उसी राजनीति का हिस्सा नजर आते हैं जिनसे जनता ऊब चुकी है। जाति आधारित राजनीति को ध्यान में रखते हुए केजरीवाल ने दलितों के लिए विशेष अधिकार का राग भी अपने एजेंडे में जोड़ा है तथा तुष्टीकरण की अनिवार्यता को देखते हुए अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधाएं देने का वायदा भी किया है। आर्थिक नीतियों पर वे अभी तक मौन हैं और जो वायदे किये है वो भी मात्र लोगों को लुभाने के तरीके अधिक प्रयोगिक कम लगते हैं। टीम केजरीवाल के अनुसार सभी आवश्यक वस्तुओं के मूल्य आम जनता तय करेगी! किस तरीके से यह संभव होगा व किस तरीके से यह अर्थव्यवस्था पर लागू होगा कहा नहीं जा सकता और कहना संभव भी नहीं है! इसके अतिरिक्त निःशुल्क शिक्षा चिकित्सा के वायदे हैं जोकि पहले से ही चल रहे हैं और उसमें कुछ भी नया नहीं है। राष्ट्रीय राजनीति में कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भारत के दावे के उलट अलगाववादी दृष्टिकोण रखने वाले प्रशान्त भूषण जैसे लोगों को भी जनता स्वीकार करेगी, ऐसा नहीं लगता।
राजनीति में वायदों व रणनीतियों के अतिरिक्त भी सबसे पहली आवश्यकता है जमीनी स्थिति समझने की। यथार्थ में केजरीवाल को अन्ना आंदोलन से जुड़े रहने के कारण भले ही मीडिया में अच्छा खासा कवरेज मिल रहा हो किन्तु फिर भी उनके किसी भी प्रदर्शन में पहुँचने वाले समर्थकों की संख्या एक हजार भी नहीं पहुँच रही है। अन्ना वाली भीड़ अब गायब हो चुकी है। केन्द्र में सरकार बनाने के लिए 272 सांसदों की आवश्यकता होती है, इतने सांसदों के लिए न तो केजरीवाल के पास दिल्ली के बाहर पूरे भारत में पहचान है और न ही तन्त्र। मीडिया भी लगातार केजरीवाल पर इतना समय भविष्य में नहीं दे पाएगी, उस स्थिति में केजरीवाल के समक्ष अपनी पहचान बनाए रखने की चुनौती होगी। दिल्ली की क्षेत्रीय राजनीति में केजरीवाल के लिए कुछ संभावनाएं अवश्य हैं और संभवतः दिल्ली विधानसभा व म्यूनिसिपल ही केजरीवाल का लक्ष्य भी है।
बाबा रामदेव के आंदोलन के समय केजरीवाल ने जिस तरह उनके मंच पर हिन्दू पहचान वाले नेताओं पर खुली आपत्ति व्यक्त की, अन्ना के आंदोलन के अराजनैतिक चेहरे के बाद भी संघ जैसे संगठनों से दूरियाँ बनाई किन्तु अहमद बुखारी के पास चलकर समर्थन मांगने गए, जन्तर-मन्तर पर संजय सिंह के माध्यम से मोदी पर उन्हें हत्यारा बताते हुए निशाना साधा गया व जिस तरह की विचारधारा से टीम केजरीवाल का संबंध है उससे स्पष्ट होता है कि धर्मनिरपेक्षता पर टीम केजरीवाल की नीति लगभग वही है जो कॉंग्रेस समेत अन्य गैर-भाजपा दलों की है। अतः यदि दिल्ली की क्षेत्रीय राजनीति से बाहर केजरीवाल 10-12 संसदीय सीटें जीतने में सफल भी हो जाते हैं तो या तो वो संसद में किसी भी छोटे दल की तरह बैठेंगे अथवा कुछ मुद्दों पर मोलभाव करके कॉंग्रेस अथवा संभावित तीसरे मोर्चे का समर्थन करेंगे। किसी भी स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होने वाला है और न ही एक व्यापक दृष्टिकोण व ढांचे के आभाव में केजरीवाल के राजनैतिक कैरियर की बहुत विस्तृत संभावनाएं ही हैं।
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-वासुदेव त्रिपाठी

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