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“मलाला युसुफजई”, यह नाम आज पूरे विश्व में दमनकारी रूढ मानसिकता के प्रतिरोध में मानवीय संघर्ष व विकासवादी क्रान्ति का एक प्रतिमान है। पाकिस्तान के स्वात घाटी इलाके में रहने वाली 14 वर्ष की लड़की मलाला को 9 अक्टूबर 2012 को तालिबानियों ने उस वक्त गोली मार दी थी जब मलाला परीक्षा देकर एक गाड़ी में स्कूल से घर वापस जा रही थी। 14 वर्षीय मलाला का अपराध यह था कि उसे तालिबानी मानसिकता स्वीकार नहीं थी, उसने न सिर्फ पूर्व की धमकियों को नजरंदाज करते हुए स्कूल जाना जारी रखा था वरन साथ ही इतनी सी उम्र में स्वात में तालिबानी आतंक से दुनिया को रूबरू कराने के लिए ब्लॉग के माध्यम से इंटरनेट पर भी तालिबान के विरुद्ध स्वर बुलंद कर रखे थे।
निश्चित ही 14 वर्षीय इस बच्ची पर किया गया यह जानलेवा हमला जेहादी आतंक का ऐसा घिनौना चेहरा था जिसकी निंदा के लिए मानव रचित शब्दकोश में शायद ही कोई उपयुक्त शब्द मिले। निःसन्देह इस घटना की विश्वव्यापी निंदा हुई किन्तु जिस तरह तालिबान ने घटना की सीना फुलाकर ज़िम्मेदारी ली और खुलेआम कहा कि चूंकि लड़की ने काफ़िराना तरीके से इस्लाम के खिलाफ आवाज उठाई है अतः यदि वो जिंदा बच जाती है तो हम उसे फिर मारेंगे उससे नृशंस मानसिकता को और भी घृणित बना दिया है।
मलाला पर हमले के बाद उसे प्रारम्भिक उपचार के बाद उसकी गंभीर स्थिति को देखते हुए पाकिस्तान से ब्रिटेन भेज दिया गया जहां उसकी स्थिति में अच्छा सुधार हुआ है। आज पूरा विश्व मलाला के पूर्ण स्वस्थ होने की प्रार्थना कर रहा है किन्तु साथ ही इस घटना से कुछ ऐसे प्रश्न भी खड़े हुए जो केवल पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान तक ही सीमित नहीं हैं वरन लगभग पूरे विश्व के लिए प्रासंगिक हैं। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस घटना की भर्त्सना करते हुए कहा कि “मलाला को रिलीजन ने और मारा किन्तु साइन्स ने बचा लिया। पहला प्रश्न यही है कि यह कथन कहाँ तक सटीक एवं सार्थक है? इसी प्रश्न के उत्तर से हम अन्य कई महत्वपूर्ण किन्तु जटिल प्रश्नों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुलझा सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से मैं इस कथन से सहमत हूँ किन्तु पूर्ण सहमत नहीं.! रिलीजन अथवा मजहब को हम तालिबानी सन्दर्भ में देखें तो अवश्य मजहब हत्यारा है किन्तु हम उन मुसलमानों को कैसे नजरंदाज कर सकते हैं जिनके लिए मजहब के मायने अपने घर में नमाज पढ़ना व जरूरतमंदों की मदद करना ही है। निश्चित रूप से उन मुसलमानों का मजहब या रिलीजन तो अपराधी नहीं है। स्पष्ट है कि कहीं न कहीं एक ही मजहब के अन्दर दो मजहब पल रहे हैं किन्तु दो मजहबों अथवा मजहब के दो चेहरों के बींच की बारीक रेखा बहुत स्पष्ट नहीं है। मजहब के दो चेहरों के बींच की बारीक रेखा का यह भ्रम मलाला की घटना के बाद पाकिस्तान की आवाम में उभरकर सामने आया है। हाँलाकि इस बात से भी मना नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान में मलाला के भी काफी विरोधी हैं जो तालिबान से सहमत हैं किन्तु फिर भी पाकिस्तान में मलाला पर हुए हमले की बड़े तबके में भरपूर निंदा हुई व तालिबान के विरुद्ध लोगों का आक्रोश भी पहले की अपेक्षा खुलकर सामने आया है। पाकिस्तान की सरकार ने भी तालिबानी हमलावरों के विरुद्ध जिस तरह सक्रियता दिखाई वह भी स्वयं में अभूतपूर्व थी। पाकिस्तान में आतंकवादी हमले कोई नई बात नहीं है, आए दिन फटते बमों में पचासों लोग मरते व घायल होते रहते हैं। आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान में 2012 में ही अब तक 2350 से अधिक आम नागरिक व 600 के लगभग सुरक्षाकर्मी आतंकवाद की मौत मारे जा चुके हैं, किन्तु मलाला पर हुए हमले के बाद जिस तरह आम पाकिस्तानी मुसलमान ने तालिबान के विरुद्ध मुखर प्रतिक्रिया दी है उससे साफ जाहिर है कि इस घटना ने कहीं न कहीं आम पाकिस्तानी मुसलमान को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि अब पानी सर से ऊपर निकल रहा है! हम इसे एक शुभ संकेत तो अवश्य कह सकते हैं किन्तु उम्मीद का दिया बहुत पास जलता अभी भी नहीं दिखता क्योंकि वहाँ की आवाम अभी भी मजहब के उन दो चेहरों के बींच बारीक फर्क नहीं समझ पायी है। हमें याद होगा जब आतंकवाद का गढ़ बन चुकी इस्लामाबाद की लाल मस्जिद पर जब 2007 में (अमेरिका के दबाब में) मुशर्रफ ने सैनिक कार्यवाही की थी तो पाकिस्तान में मुशर्रफ के विरूद्ध भीषण जनाक्रोश फूट पड़ा था। पाकिस्तानी मुसलमानों ने आतंक के विरुद्ध कार्यवाही की जगह मस्जिद में फल फूल रहे आतंक का समर्थन किया। इसी तरह ओसामा के मारे जाने पर लाखों की संख्या में लोग पाकिस्तान की सड़कों पर अमेरिका विरोधी नारे लगाने व ओसामा को श्रद्धांजलि देने निकल आए थे। लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिद्दीन व हुजी जैसे 50 से अधिक आतंकवादी संगठन पाकिस्तानियों की अपार हमदर्दी व खुले दिल जकात से फले फूले व फल-फूल रहे हैं। आज इन्हीं पाकिस्तानियों में से कई मलाला पर हुए हमले का विरोध कर रहे हैं क्योंकि जिस कट्टरपंथ की चिंगारी को इन्होंने हवा दी थी वह आज इन्हीं के घर को तबाह करने की स्थिति में पहुँच गई है।
वस्तुतः मनुष्य के जीवन में अपरिहार्य स्वतन्त्रता का एक न्यूनतम अपेक्षित परिक्षेत्र होता है जिसमें अतिक्रमण प्रकृति प्रदत्त जीवन की स्वाभाविक प्रवत्ति में ही खलल डालने लगता है, चूंकि प्रत्येक प्राणी स्वभावतः ही जीना चाहता है अतः ब्रेन-वाश्ड आत्मघातियों के अतिरिक्त मनुष्य इस परिक्षेत्र में अतिक्रमण को स्वीकार नहीं कर पाता। पाकिस्तानियों ने जिस ओसामा को अथवा जिन आतंकवादियों को मजहब के जुनून में यह सोचकर सदैव समर्थन दिया कि वे गैर-मुस्लिमों के खिलाफ लड़ रहे हैं, वे यह बात नहीं समझ सके कि छठी सदी का जो कानून और इतिहास गैर-मुस्लिमों के अनुकूल नहीं बैठता वह आज उनके जीवन के दायरे के अनुकूल भी नहीं बैठ सकता! जेहादी इस्लाम की इस पौध के अतिरिक्त एक ऐसी बड़ी जनसंख्या है जो स्वयं को उदार कहते हुए आतंकवाद की तो आलोचना करती है किन्तु कट्टरपंथ के अन्य चेहरों को जाने अंजाने पोषती है। जैसे कि कई मुल्ला मौलवी व इमामों के नेतृत्व में अन्य धर्मों को भी इस्लाम की रोशनी में जायज नाजायज ठहराने की व्यापक प्रवत्ति है। हिन्दुओं की मूर्तिपूजा अथवा ईसाइयों के बाइबल के कई संदर्भों को हेय समझना व आलोचना करना एक खुला चलन है। इस प्रवत्ति के लोग कई बार स्वयं को मजहब के उस चेहरे का समर्थक मानते हैं जो आतंकवाद का समर्थन नहीं करता किन्तु वास्तव में वे मजहब के दूसरे रूढ़ चेहरे का अनुसरण ही कर रहे होते हैं जो पहली पीढ़ी में कट्टरपंथ को जन्म देता है और दूसरी पीढ़ी में आतंकवाद को! मजहब के आवश्यक व सार्थक चेहरे का अनुयायी तभी बना जा सकता है जब अपने मजहबी आदेश का प्रयोग आप अपने जीवन के लिए करें, वह भी वर्तमान में उसकी सार्थकता का खुली बुद्धि के साथ आंकलन करके, न कि दूसरों की आस्था का निर्णय करने के लिए। यदि मलाला जैसी नृशंस घटनाओं की बाढ़ को रोकना है तो कट्टरपंथ की ओर पहले कदम को ही रोकना होगा। यह बात सभी धर्मों के लिए है क्योंकि रूढ़ कट्टरपंथ से सभ्यताएं सहस्राब्दियों तक जीवित नहीं रहतीं। सभी प्रश्नों का यही एक उत्तर भी है और यह पूरे इस्लामिक विश्व सहित भारत के सन्दर्भ में भी उतना ही सार्थक है क्योंकि पाकिस्तान के संक्षिप्त संस्करण के रूप में यहाँ भी सिमी, इंडियन मुजाहिद्दीन पलते बढ़ते हैं, यहाँ भी लाल मस्जिद हैं और यहाँ भी ओसामा के मरने पर शोक सभाएं होती हैं। अतः मलाला की घटना कट्टरपंथ के विरुद्ध एक वैश्विक सीख है। बस एक प्रश्न यह अभी भी अनुत्तरित है कि इस सीख को मजहब के दूसरे (रूढ़) चेहरे के अनुयायी, विशेषकर पाकिस्तान में, कब समझ पाते हैं?
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-वासुदेव त्रिपाठी
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