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35 राज्यों के संघीय ढांचे वाले हमारे देश में 30 राज्यों की सरकारें सीधे जनता द्वारा चुनी जाती हैं अतः प्रत्येक एक दो वर्ष में किन्हीं न किन्हीं राज्यों में चुनावी घमासान का वातावरण रहता है। वर्तमान में हिमांचल के बाद गुजरात राज्य का चुनाव अपने पूरे उफान पर है। हाँलाकि लोकसभा में संख्या की दृष्टि से गुजरात उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, जहां से 80 सांसद चुनकर जाते हैं, से काफी पीछे है और लोकसभा में केवल 26 सांसद ही भेजता है फिर भी गुजरात की नयी पहचान के कारण यह चुनाव भारतीय राजनीति के लिए कई मायनों में काफी अलग है और इस पर राजनैतिक दलों व चुनावी पण्डितों की ही नहीं वरन पूरे देश की नजर टिकी हुई है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि आधुनिक गुजरात की यह पहचान कोई और नहीं बल्कि स्वयं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं जिनके बारे में कहा जाने लगा है कि गुजरात में उनका कद भाजपा से भी बड़ा हो गया है।
नरेन्द्र मोदी का यह कद ही गुजरात चुनाव को इतना महत्वपूर्ण बना देता है क्योंकि मोदी भाजपा की ओर से 2014 के लिए प्रधानमन्त्री पद के दावेदारों में से सबसे सशक्त दावेदार बनकर उभर चुके हैं। खास बात यह है कि मोदी को प्रधानमन्त्री पद की मजबूत दावेदारी तक लाने में भाजपा के शीर्ष नेताओं का कोई योगदान नहीं है, यह मोदी ही हैं जिन्होंने तमाम आलोचनाओं व मुसीबतों को दरकिनार करते हुए स्वयं को इस स्थिति तक पहुंचाया है। मोदी ने जिस तरह से मुख्यमन्त्री बनने के बाद इन 11 सालों में अपने प्रशंसकों व समर्थकों की फौज को बढ़ाया व अधिकांश कट्टर समर्थकों को साथ जोड़े रखा वह वास्तव में उनकी उस राजनैतिक निपुणता का द्योतक है जिससे उनके विरोधी भी इन्कार नहीं कर पाते।
ऐसे में गुजरात चुनाव नरेन्द्र मोदी के लिए मात्र जीत का प्रश्न नहीं हैं क्योंकि अधिकांश चुनावी पण्डितों व एक्ज़िट पोल्स का मानना है कि मोदी की वापसी तय है, मोदी के लिए महत्वपूर्ण यह है कि वो कितनी बड़ी जीत हासिल कर पाते हैं। यदि भारतीय राजनीति की प्रवत्ति को देखा जाए तो यदि मोदी के लिए किसी भी स्थिति में बहुमत जुटा लेना ही बड़ी उपलब्धि होगी क्योंकि तीसरे कार्यकाल तक आते आते सत्ता विरोधी लहर के सामने राजनीति के बड़े बड़े महारथी औंधे मुंह गिर जाते हैं। किन्तु नरेन्द्र मोदी के बढ़े हुए कद व प्रधानमन्त्री पद के लिए उनकी दावेदारी ने उनके लिए बहुमत के मायने बदल दिये हैं। शायद इसीलिए कॉंग्रेस भी, यदि गुजरात के स्थानीय सूत्रों पर विश्वास किया जाए, मोदी की सीटों को वर्तमान 121 की संख्या से थोड़ा ही सही नीचे गिराने को ही आन्तरिक रूप से अपना लक्ष्य मान रही है।
गुजरात चुनावों, उनके आगामी परिणामों व उसके दूरगामी प्रभावों के विश्लेषण के साथ साथ हमें मोदी व मोदीत्व को समझना होगा ताकि भारतीय राजनीति के भविष्य को टटोला जा सके। मोदी के चरित्र की दो विशेष बात हैं जिन्हें उनके समर्थक व आलोचक अपने अपने तरीके से परिभाषित करते हैं। पहला- मोदी की दृढ़ राजनैतिक शैली अथवा हठधर्मिता जिसने संजय जोशी प्रकरण से लेकर उत्तर प्रदेश चुनावों तक भाजपा शीर्ष नेतृत्व को भी झुकने को मजबूर किया था, दूसरा आलोचनाओं से भी लाभ उठाने की उनकी क्षमता। गुजरात दंगों पर विरोधियों द्वारा लग रहे आरोपों के जबाब में मोदी ने कहा था माफी उन्हें मांगनी चाहिए जिन्होंने अपराध किया हो, और मोदी आज तक इस पर दृढ़ हैं। सोहराबुद्दीन एंकाउंटर मामले में कॉंग्रेस समेत फुटकर विरोधियों ने दबाब बनाने का कितना ही प्रयास क्यों न किया हो किन्तु सोहराबुद्दीन का नाम आते ही मोदी आज भी बिना झिझके एक ही जबाब देते हैं कि आतंकवादियों के लिए उनके दिल में जरा भी हमदर्दी नहीं है, वे तुष्टीकरण के लिए देश की सुरक्षा को दांव पर नहीं लगा सकते। मोदी के इस मोदीत्व पर ही साम्प्रदायिकता के आरोप विरोधियों की ओर से लगते हैं किन्तु उनके समर्थकों की फौज उनकी इसी अदा पर फिदा है।
मोदी ने भारतीय राजनीति को कई मायनों में एक निर्णायक दिशा दी है। अभी तक भारतीय राजनीति को दो ध्रुवों में परिभाषित किया जाता रहा है। एक धड़ा राष्ट्रवादी कहलाता है जिस पर दूसरे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष धडे द्वारा साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाया जाता है। कॉंग्रेस का चरित्र भले ही अवसरवादी व परिवारवादी रहा हो किन्तु आजादी के बाद से उसने सैद्धान्तिक रूप से धर्मनिरपेक्ष रास्ता अपनाया और स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात अङ्ग्रेज़ी शासन के कटु अनुभव, महात्मा गांधी जैसे नेताओं का नाम व विकल्पहीनता जैसे कारणों के चलते लम्बे समय तक निर्वाधित सत्ता चलायी। जनता दल के उत्थान व जयप्रकाश आन्दोलन के समय कॉंग्रेस के प्रभुत्व को एक बार चुनौती अवश्य मिली किन्तु इन्दिरा गांधी व राजीव गांधी की हत्या से उमड़ी सहानुभूति ने एकबार फिर उसे पैर जमा लेने का अवसर दे दिया। कॉंग्रेस को स्थायी चुनौती राममन्दिर आन्दोलन के पश्चात भाजपा के अभ्युदय ने दी और तब से उसके एकछत्र शासन की सम्भावना लगभग सदैव के लिए धूमिल हो गयी। किन्तु भाजपा भी गठजोड़ की राजनीति के बूते केवल छः साल ही सत्ता में रह पायी व साथ ही किसी राज्य में भी बहुत लम्बे समय तक निर्बाध शासन चलाने में भी असफल रही। भाजपा की दृष्टि से सबसे घातक इसके जन्मक्षेत्र उत्तर प्रदेश से इसका साफ हो जाना रहा। इसके पीछे भले ही कई पृथक कारण उत्तरदाई रहे हों, जैसे कि गुटबाजी, जातीय राजनीति के सामने असफलता, मायावती से गठबंधन व धरातलीय नेताओं के स्थान पर मखमली नेताओं का दबदबा आदि, एक बड़ा वर्ग राममन्दिर के लिए किए गए वादे को पूरा न करने का अपराधी भी भाजपा को मानता है, किन्तु सेकुलर राजनीति के पैरोकारों ने इसे इस रूप में परिभाषित किया कि भारतीय जनमानस लम्बे समय तक हिन्दुत्व की अवधारणा को स्वीकार नहीं करता। शिवराज सिंह चौहान व रमन सिंह की मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में पुनर्वापसी को इस तरह से परिभाषित करने का प्रयास किया गया था कि यह जीत दृढ़ हिन्दुत्व के स्थान पर उदारवाद एवं विकास की राजनीति अपनाने का परिणाम है। स्वयं 2007 में मोदी की दूसरी जीत पर कई बुद्धिजीवियों ने कहा कि यह तभी सम्भव हो सका जब मोदी ने हिन्दुत्व की अपेक्षा विकास को मुद्दा बनाया। जबकि 2007 के चुनाव में मोदी के इन बौद्धिक विरोधियों ने मोदी को कट्टर हिन्दुत्व से पृथक बिलकुल भी नहीं किया था और स्वयं मोदी ने भी ऐसा विशेष प्रयास नहीं किया था। मोदी की कई सभाओं में हिन्दुत्व के पोस्टर व नारे आसानी से देखे जा सकते थे। शिवराज सिंह चौहान पर उनके कुछ निर्णयों के बाद अब पुनः सेकुलर लॉबी की ओर से साम्प्रदायिकता के आरोप लगने लगे हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद कई बुद्धिजीवियों ने लिखा कि भाजपा की हार का एक बड़ा कारण मोदी को स्टार प्रचारक के रूप में प्रयोग करना था क्योंकि जनता उनकी साम्प्रदायिक छवि को पसन्द नहीं कर पायी, बाबजूद इसके कि नरेन्द्र मोदी की सर्वाधिक मांग रही थी व भीड़ भी रेकॉर्ड जुटती थी।
इससे यह स्पष्ट होता है कि सेकुलर राजनैतिक लॉबी भाजपा की प्रत्येक जीत को भी उसकी हिन्दुत्व की अवधारणा की पराजय के रूप में परिभाषित करना चाहती है और उसकी प्रत्येक हार को भी! नरेन्द्र मोदी राजनीति की इस व्याख्या के जबाब के रूप में उभरे हैं। उन्होने अब तक यह सिद्ध किया है विकास व हिन्दुत्व दोनों को एक साथ बराबरी से लेकर चला जा सकता है। खोखले विकास, भ्रष्टाचार व गरीबों के विरुद्ध पूँजीपतियों का साथ देने जैसे आरोप गुजरात राज्य व आलाकमान कॉंग्रेस द्वारा मोदी पर लगाये जा रहे हैं किन्तु विकास, महंगाई, भ्रष्टाचार के अपने दयनीय रेकॉर्ड व एफ़डीआई के बींच कॉंग्रेस अपने दावों में कुछ जान डाल पाएगी ऐसा नहीं लगता है। सोनिया गांधी को गुजरात में कॉंग्रेस द्वारा किए गए विकास का उदाहरण देने के लिए नेहरू तक की याद दिलानी पड़ रही है।
विकास व हिन्दुत्व की दोहरी छवि में विकास के लिए यदि स्वयं मोदी का श्रेय है तो हिन्दुत्व के लिए मोदी व मोदी विरोधियों दोनों का श्रेय है। अब यदि 2012 में मोदी तीसरी बार गुजरात मुख्यमन्त्री का मुकुट प्राप्त करने में सफल होते हैं तो यह लम्बे समय तक कॉंग्रेस नियंत्रित भारतीय राजनीति को नया दृष्टिकोण देने की दिशा में निर्णायक कदम होगा। मोदी की स्वीकार्यता से गैर-भाजपाई ताकतों की साम्प्रदायिकता की परिभाषा को बड़ा झटका लगेगा तथा विकास के साथ दक्षिणपंथी विचारधारा की राष्ट्रीय राजनीति में समानान्तर स्थापना और असंदिग्ध व सुदृढ़ होगी जैसे कि अमेरिका ब्रिटेन आदि देशों में रिपब्लिकन व कंजर्वेटिव की समानान्तर राजनीति है। देखना यह होगा कि यदि मोदी अपेक्षित विजय पाते हैं तो इसे राष्ट्रीय राजनीति में अपने कद को बढ़ाने में कितना व कैसे प्रयोग करते हैं व भाजपा मोदी की विजय को कितना व कैसे अपने लाभ के लिए प्रयोग कर पाती है.!
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-वासुदेव त्रिपाठी
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