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प्रेम का विषय गूढ है, इसे वेलेंटाइन से लेकर मीरा के पदों तक में परिभाषित किया गया है। अङ्ग्रेज़ी में शारीरिक भोग को ही लव मेकिंग कहा जाता है किन्तु भारतीय दर्शन अथवा स्वीकृति भिन्न है। कबीर से लेकर मीरा तक भले ही प्रेम को अपने ढंग से परिभाषित किया गया हो किन्तु भारतीय अवधारणा में प्रेम को शरीर का नहीं अपितु आत्मा विषय माना गया है। शरीर तो मात्र माध्यम है व्यक्त का, प्रेम की पहुँच तो अव्यक्त तक है। यह केवल प्रेम ही है जिसकी गति व्यक्त व अव्यक्त दोनों तक है, प्रेम ही व्यक्त अव्यक्त के मध्य सेतु का कार्य कर सकता है। व्यक्त को मुख्यतः जड़ का आश्रय है किन्तु अव्यक्त तो स्वयं चेतनासिद्ध है। मायामूलक प्रवत्ति के कारण हमारी गति जड़ोन्मुखी है, किन्तु हमारा सत्य तो चेतन है, सत्य सार्वकालिक होता है। सत्य छरणशील नहीं अच्युत है। हम सत्य से विमुख तो हो सकते हैं किन्तु सत्य से निवृत्त नहीं हो सकते.! अस्तित्व की सिद्धि ही सत्य से है, अस्तित्व स्वयं सत्य का प्रमाण है। अस्तित्व में रहते सत्य के नाश की कल्पना नहीं की जा सकती, कल्पना अस्तित्व के रहते ही की जा सकती है। चूंकि सनातन की बीजहानि नहीं होती, अतः सत्य हमारे भीतर सदैव प्रज्ज्वलित रहता है। अव्यक्त अथवा चेतना का यही सत्य प्रेम के रूप में हमारे अस्तित्व में प्रदीप्त है।
आत्मा के स्तर पर सम्पूर्ण संसार एक ही है, यही परमात्मा की पूर्णता है व जीवात्मा का परमात्मा के साथ ऐक्य है। वास्तव में किसी भी घटना के चरममूल में एक ही बीज होता है, संसार के मूल में भी एक ही बीज हो सकता है। क्वांटम फ़िज़िक्स के अनुसार भी सृष्टि के मूल में एक ही ऊर्जा है। न द्रव्यमान ऊर्जा से भिन्न है और न ऊर्जा के अन्य प्रकार ही!
अतः आत्मा में कोई विभेद नहीं हैं, सभी जीवों की आत्मा में कोई बंटवारा नहीं है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं “ममैवांशों जीवलोके जीवभूतः सनातनः”॥ चूंकि जीव माया के आवरण में अपनी पृथक सत्ता की भ्रांति रच लेता है अतः वह स्व अथवा अहं से ग्रस्त हो जाता है जहां से वासना कामना आदि के बीज फूटते हैं। जब तथाकथित प्रेम का उद्देश्य स्व की तृप्ति व सुख होता है तब वह प्रेम नहीं वासना है क्योंकि उसके मूल में अहं या स्व है… किन्तु जब जीव स्व की भित्ति से बाहर निकलकर स्व से अधिक प्रेमास्पद से प्रेम करने लगता है, अंतिम व चरम उद्देश्य स्व सुख नहीं अपितु प्रेमी का आनंद हो जाता है तब अहं की भित्ति टूट जाती है, और जीव आत्मा के ऐक्य की ओर उन्मुख हो जाता है। प्रेम का पहला लक्षण है अपेक्षा का ह्रास व प्रेम की पूर्णसिद्धि है अपेक्षा का नाश! पूर्ण प्रेम तभी है जब आपके हृदय में जीव मात्र के प्रति स्वाभाविक प्रेम का संचार हो उठे, यही परमात्मा से प्रेम है, परमात्मा की भक्ति है- “अद्वेष्ट: सर्वभूतानाम् मैत्रः करुण एव च”– क्योंकि जीव वास्तव में परमात्मा का ही स्वरूप है, जीवात्मा में ही परमात्मा का वास है- “समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठंतम् परमेश्वरम्”। अतः प्रेम का स्वभाव यही है कि स्व का नाश, अहं का नाश.! अज्ञानता व सत्यविमुखता के कारण वासना हमारा स्वभाव बन चुका है, वासना हमारी जड़ता अथवा बंधन का सूत्र है। वासना के रहते न ही हम सत्योन्मुखी होते हैं और न ही हमारी प्रकृति जीव मात्र से प्रेम में प्रवृत्त हो पाती है। अतः ग्रन्थि को मुक्ति का यन्त्र बना लें, अशान्ति को ही शान्ति में परिवर्तित कर दें ऐसा एक मार्ग होना चाहिए। ऐसा एकमात्र मार्ग है-प्रेम! प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी का पारस्परिक समर्पण संबंध वासना के समुद्र को चीरता हुआ प्रेम के गंतव्य तक पहुँच जाता है। प्रेमिका के संसर्ग में स्वयं को विलीन करता हुआ प्रेमी मुक्ति की उस प्रथम अमृतबूंद की अनुभूति करता है जिसके लिए उसे स्वयं के अस्तित्व की भी अपेक्षा नहीं रहती! प्रेमी अथवा प्रेमिका के सुख की तत्परता में स्व अथवा अहं का अस्तित्व कहीं विलीन हो जाता है, अहं के विलय के साथ ही भ्रम व अंधकार का नाश होने लगता है। अज्ञान के नाश के बाद तो एक मुक्ति का ही अस्तित्व है.!! प्रेमी अथवा प्रेमिका तो मात्र माध्यम हैं अनन्त सत्य के साक्षात्कार का, अनन्त प्रेम की प्राप्ति का, अनन्त शान्ति की प्राप्ति का, वैश्विक एकता के अनुभव का, किन्तु माध्यम भी सांसारिक दृष्टि से, आंतरिक अथवा यथार्थ दृष्टि में तो दोनों में कोई भेद ही नहीं, एक ही तो हैं प्रेमी और प्रेमिका.! राधा और कृष्ण में, सीता और राम में भला भेद हैं कहीं.? गोस्वामी तुलसीदास जी ने वन्दना की है-
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न॥
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-वासुदेव त्रिपाठी
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