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एक लंबी प्रतीक्षा के बाद 13 सितंबर को भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को आगामी लोकसभा चुनावों के लिए एनडीए का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। यह सही है कि मोदी पर पार्टी के कार्यकर्ताओं की ओर से बहुत पहले ही निर्णय कर लिया गया था और औपचारिकता भर बाकी थी किन्तु फिर भी यह औपचारिकता वर्तमान राजनीति की एक बड़ी व प्रासंगिक घटना है जोकि मीडिया व राजनैतिक गलियारों से लेकर पान की दुकानों और चाय के ठेलों तक साफ दिखाई भी दे रही है।
भाजपा में अटल-आडवाणी युग के इस समापन और मोदी युग के प्रारम्भ के गंभीर राजनैतिक निहितार्थ हैं जिनके तटस्थ विश्लेषण की आवश्यकता है। भाजपा में मोदी युग के प्रारम्भ के भारतीय राजनीति व समीकरणों पर पड़ने वाले परिणामों को समझने के लिए आवश्यक है कि पहले मोदी के उत्थान के बाद की भाजपा का स्वरूप क्या होगा इसे समझा जाए। भाजपा में आडवाणी के बाद नंबर दो नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है और अभी तक नरेन्द्र मोदी भी उसी में एक नाम थे। मोदी निःसन्देह भाजपा कैडर की पुरानी पसंद रहे हैं और 2009 के बाद से वो पहली पसंद भी बनकर उभर चुके थे लेकिन फिर भी गुजरात चुनावों में हैट्रिक जमाने से पहले तक भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, शिवराज जैसे और भी नाम कई नाम बराबरी से गिने जा रहे थे। किन्तु पार्टी के अंदर के दावेदारों और कुछ मीडिया के उछाले नामों को जिस तरह पीछे छोड़कर मोदी अकेले योद्धा के रूप में उभरे, यह भाजपा की संरचना पर दूरगामी परिणाम डालेगा। साथ ही पार्टी के लिहाज से आडवाणी की नाराजगी और खुला विरोध भले ही एक अवांछनीय घटना थी लेकिन मोदी के लिए इसके निहितार्थ भी सकारात्मक ही हैं। मोदी के सामने आडवाणी के अलग-थलग पड़ने से पार्टी में सीधा संदेश गया है कि आज की भाजपा का सच केवल नरेन्द्र मोदी ही हैं और सच से मुंह मोड़ने की कोशिश करना बुद्धिमत्ता नहीं है। मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार जैसे बड़े नेताओं का आडवाणी से अलग जाकर इस सच को स्वीकार करना आने वाले कल की भाजपा का स्वरूप और संरचना समझने के लिए पर्याप्त है। महत्वपूर्ण यह है कि भाजपा की दूसरी पंक्ति के अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी, नितिन गडकरी, अनंत कुमार, व वेंकैया नायडू समेत जितने भी नेता हैं उनमें से किसी के पास भी न तो अटल-आडवाणी जैसा व्यापक जनाधार है और न ही देश व्यापी पहचान.! मोदी इस मामले में आज अटल-आडवाणी का एक समाकलित चित्र हैं। हिन्दुत्व के मुद्दे पर उनकी लोकप्रियता नब्बे के दशक के आडवाणी की तरह है और स्पष्ट सोच व विकास के मुद्दे पर उन्होने काफी हद तक अटल की तरह अपनी छवि बना ली है। पार्टी कार्यकर्ताओं में मोदी के नाम पर जोश उनकी हिंदुत्ववादी छवि का परिणाम है, और शहरी वर्ग में उनकी लोकप्रियता उनकी विकासवादी छवि का परिणाम। ऐसे में अटल-आडवाणी की जोड़ी की जगह को मोदी अकेले भरने में सफल हुये हैं और इस तरह का उनका पार्टी में उभार उन्हें भाजपा का निष्कंटक सेनापति बनाएगा।
पार्टी में अटल-आडवाणी युग के समापन और मोदी युग के प्रारम्भ के और भी मायने हैं। मोदी की कार्यशैली भाजपा के दोनों पूर्व महारथियों से काफी अलग है। मोदी अपने तरीके से काम करने के लिए जाने जाते हैं और विरोधियों की जड़ें काट देना उनकी नीति रही है। गुजरात में उन्होने न सिर्फ अपने खेमे के अपने विरोधी शंकर सिंह बाघेला, केशु भाई पटेल व संजय जोशी को राजनैतिक वनवास में भेज दिया बल्कि काँग्रेस की जड़ों में भी मट्ठा डाल दिया। दिल्ली की राजनीति में भी उन्होने “काँग्रेस मुक्त भारत” का नारा दिया है। इस कार्यशैली के परिणाम स्वरूप भाजपा में बड़े बदलाव आने वाले हैं। अभी तक भाजपा की खूबी और कमजोरी ये रही है कि अन्य सभी पार्टियों की तरह यहाँ शक्ति का कोई एक केंद्र नहीं रहा है। खूबी इसलिए क्योंकि लोकतान्त्रिक दृष्टि से ये एक अच्छी बात कही जानी चाहिए लेकिन कमजोरी इसलिए क्योंकि इससे सत्ता के कई केंद्र पनपते हैं और फिर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते पार्टी या तो टूटती है या भितरघात का शिकार होती है। मोदी की ताजपोशी ऐसे सभी नेताओं के लिए चेतावनी है जो अभी तक अपनी मनमानी के चलते विरोधियों को फायदा पहुंचाने का काम करते रहे हैं। अर्थात आने वाले समय में भाजपा एक हाइकमान से चलेगी, एक भाषा बोलेगी और एक निर्देश का पालन करेगी। राजनीतिशास्त्र की किताबें और विशेषज्ञ भले ही इसके कितने ही नुकसान क्यों न गिनाएं किन्तु धरातलीय वास्तविकता यही है कि राजनीति एक केंद्र से ही अधिक सफलतापूर्वक चलती है। मोदी के सामने झुकने की केवल एक ही चौखट नागपुर होगी और उसे भाजपा में कभी कोई भी नहीं लांघ सकता है क्योंकि पार्टियां कार्यकर्ताओं की निष्ठा और जोश से चलती हैं और भाजपा के कार्यकर्ताओं की निष्ठा और श्रद्धा का अंतिम केंद्र नागपुर ही है।
यदि भाजपा एक भाषा बोलेगी तो काँग्रेस समेत अन्य विरोधियों के लिए एक अशुभ सूचना है क्योंकि अब तक अशुभ समय में भी “कमजोर विपक्ष” उनकी बड़ी ताकत रहा है। सवाल यह अवश्य है कि मोदी की यह पूरी माया चुनावी भवसागर में भाजपा के बेंड़े को तट के कितने पास तक ले जा पाती है! इस पर सवाल भी हैं और शंकाएँ भी.! लेकिन इतना अवश्य है कि अगर मोदी भाजपा द्वारा खेले गए एक दांव हैं तो आज के हालात में भाजपा के पास यही एक इकलौता दांव था जिसमें जीत की अधिकतम संभावनाएं हैं। राजनैतिक पंडितों का बड़े-बड़े विश्लेषणों में एक बड़ा तर्क रहता है कि मोदी को सामने लाने से भ्रष्टाचार और महंगाई की बहस सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहस में तब्दील हो जाएगी और काँग्रेस समेत विपक्षियों को मौका मिल जाएगा! इसका सीधा सा जबाब ये है कि विपक्षियों के इन्हीं आरोपों और मीडिया में होने वाली सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की इन्हीं बहसों ने ही नरेन्द्र दामोदर मोदी जैसे एक मुख्यमंत्री को इतना लोकप्रिय बना दिया कि पूरी भाजपा आज नमो-नमो कर रही है। इन बहसों ने मोदी को न केवल प्रधानमन्त्री पद की दावेदारी तक पहुंचाया है बल्कि भाजपा के वैचारिक समर्थकों की विशालकाय फौज में दोबारा से वो जोश भी भर दिया है जो राम मंदिर आंदोलन के बाद से गायब था। आदर्शों के मानकों पर सही गलत की परिभाषाएँ कुछ भी हो सकती हैं और आदर्श व्यक्ति-व्यक्ति के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं किन्तु तटस्थता से जमीन पर खड़े होकर देखने पर दिखाई देने वाला सच यही है कि भाजपा जैसी पार्टी के रथ में मचे कार्यकर्ताओं को जोश हिन्दुत्व के नाम पर ही आता है अन्यथा भाजपा में विकास के शिवराज, रमन सिंह और मनोहर पार्रिक्कर जैसे और भी चेहरे थे। मीडिया में मोदी को मिलने वाला कवरेज उनके विकास पर चर्चाओं के लिए शायद ही कभी दिया गया, मीडिया में मोदी की शुरुआत ही गुजरात दंगों से हुई और आज भी दंगो के दाग के सवाल के बिना ही मोदी की बात कभी पूरी नहीं होती। लेकिन लोकतन्त्र में तो निर्णय जनता को करना होता है और जनता नजर में तो “दाग अच्छे” थे। मोदी भी यह बात बखूबी समझते हैं और शायद इसीलिए वो प्रधानमंत्री पद की अपनी दावेदारी की घोषणा के बाद मीडिया को विशेष रूप से धन्यवाद देना नहीं भूले!
समस्या यह है कि जब बड़े-बड़े विश्लेषक यह कहते हैं कि फला बात से देश में फला बहस शुरू या लुप्त हो जाएगी तो उनका आशय टीवी और अखबारों की डिबेट से होता है और वे ये समझ बैठते हैं कि टीवी की बहस ही देश की बहस है और इस पर होने वाले फैसले ही देश का मूड तय करेंगे, जबकि जनता की सहमति और असहमति जमीन की हकीकतों से निर्धारित होती है। 16 दिसंबर गैंगरेप आरोपियों को फांसी दिये जाने की टीवी और अखबारों की मांग का जो जनता बहुमत से समर्थन करती है वही जनता उतने ही बहुमत से इशरत जहां के लिए किसी भी सहानुभूति से इंकार कर देती है। यह तय है कि मोदी के आने के बाद विपक्षियों द्वारा सांप्रदायिकता और दंगों के तीर जमकर चलाये जाएँगे क्योंकि उनके पास दूसरा हथियार भी नहीं होगा और भाजपा को इसका फायदा बिना हिन्दुत्व का नारा लगाए मिलेगा। भाजपा भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दे उठाएगी और संदेश देगी कि सांप्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता की राजनीति में उलझे विरोधियों की अपेक्षा उसकी प्राथमिकताएँ पूर्ण स्पष्ट हैं। मोदी के भाषणों में ये बात अभी से देखी जा सकती है।
मतलब साफ है कि मोदी भाजपा की ओर से तुरुप का पत्ता हैं लेकिन राजनीति का खेल केवल एक ही पत्ते से जीत लिया जाता हो ऐसा भी नहीं है। राजनीति एक जुआँ भी है और एक शतरंज भी, यहाँ हर सिपाही भी जरूरी है और हर दांव भी.! मंजिल तब थोड़ी कठिन नजर आती है जब उत्तर प्रदेश जैसे राजनीति के बड़े किले में भाजपा लंबे अरसे से राजपाठ गँवाए बैठी हो.! यहाँ सिपाही भी ढूँढना कठिन है और चक्रव्यूह बनाना भी.! लेकिन इसीलिए मोदी ने अपने सबसे उम्दा सेनापति अमित शाह को यहाँ भेजा है। इसके अलावा दिक्कतें दक्षिण और पूर्व के पथरीले इलाकों में भी हैं जहां भाजपा का कमल नहीं खिलता है, लेकिन अगर कर्नाटक में मोदी येदुरप्पा को पाले में ला सके और उत्तर में उत्तर प्रदेश व बिहार समेत अपने गढ़ों को बचाने में सफल रहे तो प्रधानमन्त्री की गद्दी पर फिर शायद बहुत दूर नहीं रहेगी। यदि ऐसा होता है तो भाजपा के स्वरूप परिवर्तन के बाद अगला नंबर उस तंत्र का होगा जिसे काँग्रेस ने 1947 से आज तक दिल्ली के राजपाठ में खड़ा किया है। ये काँग्रेस के गांधी परिवार के लिए भी एक बड़ी चिंता विषय होगा जिसे मोदी “दिल्ली की सल्तनत” कहते हैं, और इस चिंता के बल काँग्रेस के माथे पर अभी से देखे जा सकते हैं।
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-वासुदेव त्रिपाठी
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